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ज्योतिष शास्त्र - एक परिचय

सामान्य भाषा में कहें तो ज्योतिष माने वह विद्या या शास्त्र जिसके द्वारा आकाश स्थित ग्रहों,नक्षत्रों आदि की गति,परिमाप, दूरी इत्या‍दि का निश्चय किया जाता है।ज्योतिषशास्त्र लेकर हमारे समाज की धरण है कि इससे हमें भविष्य में घटनेवाली घटनाओं के बारे में आगे ही पता जाता है। वास्तव में ज्योतिषशास्त्र का रहस्य अथवा वास्तविकता आज भी अस्पष्ट है, या इस विद्या पर अन्धविश्वास हमें हमेशा ही भटकता रहता है। इसी विषय पर तर्कपूर्ण विचार प्रकट कर रहा हूँ।

ज्योतिषशास्त्र वज्योतिषी के ऊपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे अपनी आपबीती एवं अनुभवों की बातें सुनते हैं। उन बातों मेंज्योतिषी द्वारा की गई भविष्यवाणी में सच हने वाली घटना का उल्लेख होता है। इन घटनाओं में थोड़ी बहुत वास्तविकता नजर आती है। वहीं कई घटनाओं में कल्पनाओं का रंग चडा रहता है क्योंकि कभी - कभार ज्योतिषी कीभविष्यवाणी सच होती है ? इस सच के साथ क्या कोई संपर्कज्योतिष शास्त्र का है?ज्योतिषियों कीभविष्यवाणी सच होने के पीछे क्या राज है ?ज्योतिषी इस शास्त्र के पक्ष में क्या - क्या तर्क देते हैं ? यह तर्क कितना सही है ?ज्योतिषशास्त्र की धोखाधड़ी के खिलाफ क्या तर्क दिये जाते हैं? इन सब बातों की चर्चा हम जरुर करेंगे लेकिन जिस शास्त्र को लेकर इतना तर्क - वितर्क हो रहा है ; उस बारे में जानना सबसे पहले जरुरी है। तो आइये , देखें क्या कहता हैंज्योतिषशास्त्र।

ज्योतिष को चिरकाल से सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है । वेद शब्द की उत्पति "विद" धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना या ज्ञान है ।ज्योतिष शास्त्रतारा जीवात्मा के ज्ञान के साथ ही परम आस्था का ज्ञान भी सहज प्राप्त हो सकता है ।

ज्‍योतिष शास्‍त्र मात्र श्रद्धा और विश्‍वास का विषय नहीं है, यह एक शिक्षा का विषय है।

पाणिनीय-शिक्षा41 के अनुसर''ज्योतिषामयनंयक्षुरू''ज्योतिष शास्त्र ही सनातन वेद का नैत्रा है। इस वाक्य से प्रेरित होकर '' प्रभु-कृपा ''भगवत-प्राप्ति भी ज्योतिष के योगो द्वारा ही प्राप्त होती है।

मनुष्य के जीवन में जितना महत्व उसके शरीर का है, उतना ही सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों अथवा आसपास के वातावरण का है। जागे हुए लोगों ने कहा है कि इस जगत में अथवा ब्रह्माण्ड में दो नहीं हैं। यदि एक ही है, यदि हम भौतिक अर्थों में भी लें तो इसका अर्थ हुआ कि पंच तत्वों से ही सभी निर्मित है। वही जिन पंचतत्वों से हमारा शरीर निर्मित हुआ है, उन्हीं पंच तत्वों से सूर्य, चंद्र आदि ग्रह भी निर्मित हुए हैं। यदि उनपर कोई हलचल होती है तो निश्चित रूप से हमारे शरीर पर भी उसका प्रभाव पड़ेगा,क्योंकि तत्व तो एक ही है। 'दो नहीं हैं। o का आध्यात्मिक अर्थ लें तो सबमें वहीं व्याप्त है, वह सूर्य, चंद्र हों, मनुष्य हो,पशु-पक्षी, वनस्पतियां,नदी, पहाड़ कुछ भी हो,गहरे में सब एक ही हैं। एक हैं तो कहीं भी कुछ होगा वह सबको प्रभावित करेगा। इस आधार पर भी ग्रहों का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है। यह अनायास नहीं है कि मनुष्य के समस्त कार्य ज्योतिष के द्वारा चलते हैं।

दिन, सप्ताह, पक्ष,मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सव तिथि का परिज्ञान के लिए ज्योतिष शास्त्र को केन्द्र में रखा गया है। मानव समाज को इसका ज्ञान आवश्यक है। धार्मिक उत्सव,सामाजिक त्योहार,महापुरुषों के जन्म दिन, अपनी प्राचीन गौरव गाथा का इतिहास, प्रभृति, किसी भी बात का ठीक-ठीक पता लगा लेने में समर्थ है यह शास्त्र। इसका ज्ञान हमारी परंपरा, हमारे जीवन व व्यवहार में समाहित है। शिक्षित और सभ्य समाज की तो बात ही क्या, अनपढ़ और भारतीय कृषक भी व्यवहारोपयोगी ज्योतिष ज्ञान से परिपूर्ण हैं। वह भलीभांति जानते हैं कि किस नक्षत्र में वर्षा अच्छी होती है, अत: बीज कब बोना चाहिए जिससे फसल अच्छी हो। यदि कृषक ज्योतिष शास्त्र के तत्वों को न जानता तो उसका अधिकांश फल निष्फल जाता। कुछ महानुभाव यह तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में कृषि शास्त्र के मर्मज्ञ असमय ही आवश्यकतानुसार वर्षा का आयोजन या निवारण कर कृषि कर्म को संपन्न कर लेते हैं या कर सकते हैं। इस दशा में कृषक के लिए ज्योतिष ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। परन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का विज्ञान भी प्राचीन ज्योतिष शास्त्र का ही शिष्य है।ज्योतिष सीखने की इच्छा अधिकतर लोगों में होती है। लेकिन उनके सामने समस्या यह होती है कि ज्योतिष की शुरूआत कहाँ से की जाये? बहुत से पढ़ाने वाले ज्योतिष की शुरुआत कुण्डली-निर्माण से करते हैं। ज़्यादातर जिज्ञासु कुण्डली-निर्माण की गणित से ही घबरा जाते हैं। वहीं बचे-खुचेभयात/भभोतजैसे मुश्किल शब्द सुनकर भाग खड़े होते हैं।अगर कुछ छोटी-छोटी बातों पर ग़ौर किया जाए, तो आसानी से ज्योतिष की गहराइयों में उतरा जा सकता है।

लेखक एवं संकलन कर्ता: पेपसिंह राठौड़ तोगावास

Friday 27 June 2014

तिथि



तिथि

दो नये चन्द्रोदय के मध्य के समय को चन्द्र मास कहते है और यह 29.5 दिन के समकक्ष होता है. एक चन्द्र मास में 30 तिथि अथवा चन्द्र दिवस होते हैं. तिथि को समझने के लिए हम यह भी कह सकते है कि चन्द्र रेखांक को सूर्य रेखांक से 12 अंश उपर जाने में लिए जो समय लगता है वह तिथि है.

इसलिए प्रत्येक नये चन्द्र और पूर्ण चन्द्र के बीच में कुल चौदह तिथियां होती हैं. शून्य को नया चन्द तथा पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा कहते हैं. तिथियां शून्य यानि अमावस्या से शुरु होकर पूर्णिमा तक एक क्रम में चलती है और फिर पूर्णिमा से शुरु होकर अमावस्या तक उसी क्रम को दूबारा पूरा करती हैं तो एक चन्द्र मास पूरा होता है.

तिथियों के नाम-
सभी तिथियों की अपनी एक अध्यात्मिक विशेषता होती है जैसे अमावस्या पितृ पूजा के लिए आदर्श होती है, चतुर्थी गणपति की पूजा के लिए, पंचमी आदिशक्ति की पूजा के लिए, छष्टी कार्तिकेय पूजा के लिए, नवमी राम की पूजा, एकादशी व द्वादशी विष्णु की पूजा के लिए, तृयोदशी शिव पूजा के लिए, चतुर्दशी शिव व गणेश पूजा के लिए तथा पूर्णमा सभी तरह की पूजा से सम्बन्धित कार्यकलापों के लिए अच्छी होती है.
सूर्य और चंद्रमा के अंतराल (दूरी) से तिथियां निर्मित होती हैं। अमावस्या के दिन सूर्य एवं चंद्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं। अत: उस दिन सूर्य और चंद्रमा का भोग्यांश समान होता है। चंद्रमा अपनी शीघ्र गति से जब 12 अंश आगे बढ़ जाता है तो एक तिथि पूर्ण होती है- भक्या व्यर्कविधोर्लवा यम कुभिर्याता तिथि: स्यात्फलम्। जब चंद्रमा सूर्य से 24 अंश की दूरी पर होता है तो दूसरी तिथि होती है। इसी तरह सूर्य से चंद्रमा 180 अंश की दूरी पर होता है तो पूर्णिमा तिथि होती है और जब 360 अंश की दूरी पर होता है तो अमावस्या तिथि होती है।
तिथि क्षय एवं वृद्धि- ग्रहों की आठ प्रकार की गति होती है। इत: ग्रहों की विभिन्न गतियों के कारण ही तिथि क्षय एवं वृद्धि होती है। एक तिथि का क्षय 63 दिन 54 घटी 33 कला पर होती है। जिसमें एक सूर्योदय हो वह शुद्ध, जिसमें सूर्योदय न हो वह क्षय और जिसमें दो सूर्योदय हो वह वृद्धि तिथि कहलाती है। क्षय और वृद्धि तिथियां शुभ कार्यों में वर्ज्य और शुद्ध तिथि शुभ होती है। तिथियों की गणना शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होती है।
शुक्ल पक्ष की तिथि
शून्य अंश से 12 अंश तक प्रतिपदा
12 से 24 अंश तक द्वितीया
24 से 36 अंश तक तृतीया
36 से 48 अंश तक चतुर्थी
48 से 60 अंश तक पंचमी
60 से 72 अंश तक षष्ठी
72 से 84 अंश तक सप्तमी
84 से 96 अंश तक अष्टमी
96 से 108 अंश तक नवमी
108 से 120 अंश तक दशमी
120 से 132 अंश तक एकादशी
132 से 144 अंश तक द्वादशी
144 से 156 अंश तक त्रयोदशी
156 से 168 अंश तक चतुर्दशी
168 से 180 अंश तक पूर्णिमा
कृष्ण पक्ष की तिथि-(ह्रास मान अंशों के अनुसार)
180 से 168 अंश तक प्रतिपदा
168 से 156 अंश तक द्वितीया
156 से 144 अंश तक तृतीया
144 से 132 अंश तक चतुर्थी
132 से 120 अंश तक पंचमी
120 से 108 अंश तक षष्ठी
108 से 96 अंश तक सप्तमी
96 से 84 अंश तक अष्टमी
84 से 72 अंश तक नवमी
72 से 60 अंश तक दशमी
60 से 48 अंश तक एकादशी
48 से 36 अंश तक द्वादशी
36 से 24 अंश तक त्रयोदशी
24 से 12 अंश तक चतुर्दशी
12 से शून्य अंश तक अमावस्या
(कृष्ण पक्ष की गणना 180 अंश चंद्रमा से 360 अंश के संक्रमण के दौरान ह्रास मान अंशों की गति के अनुसार किया जाता है)
तिथि विवरण
प्रतिपदा तिथि- यह वृद्धि और सिद्धप्रद तिथि है। स्वामी अग्नि देवता, नन्दा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ। इस तिथि में कूष्माण्ड दान एवं भक्षण त्याज्य है।
द्वितीया- यह सुमंगला और कार्य सिद्धिकारी तिथि है। इसके स्वामी ब्रह्मा हैं। भद्रा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में कटेरी फल का दान और भक्षण त्याज्य है।
तृतीया तिथि- यह सबला और आरोग्यकारी तिथि है। इसकी स्वामी गौरी जी हैं। जया नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में नमक का दान व भक्षण त्याज्य है।
चतुर्थी तिथि- यह खल और हानिप्रद तिथि है। इसके स्वामी गणेश जी हैं। रिक्ता नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ, कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में तिल का दान और भक्षण त्याज्य है।
पंचमी तिथि- यह धनप्रद व शुभ तिथि है। इसके स्वामी नागराज वासुकी हैं। पूर्णा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में अशुभ और कृष्ण पक्ष में शुभ । इस तिथि में खट्टी वस्तुओं का दान और भक्षण त्याज्य है।
षष्ठी तिथि- कीर्तिप्रद तिथि है। इसके स्वामी स्कंद भगवान हैं। नन्दा नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण पक्ष में मध्यम फलदायी, तैल कर्म त्याज्य।
सप्तमी तिथि- मित्रप्रद व शुभ तिथि है। इसके स्वामी भगवान सूर्य हैं। भद्रा नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, आंवला त्याज्य।
अष्टमी तिथि- बलवती व व्याधि नाशक तिथि है। इसके देवता शिव जी हैं। जया नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, नारियल त्याज्य।
नवमी तिथि- उग्र व कष्टकारी तिथि है। इसकी देवता दुर्गा जी हैं। रिक्ता नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, काशीफल (कोहड़ा, कद्दू) त्याज्य।
दशमी तिथि- धर्मिणी और धनदायक तिथि है। इसके देवता यम हैं। पूर्णा नाम से ख्याति, शुक्ल व कृष्ण दोनों पक्षों में मध्यम, त्याज्य कर्म परवल है।
एकादशी तिथि- आनंद प्रदायिनी और शुभ फलदायी तिथि है। इसके देवता विश्व देव हैं। नन्दा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म दाल है।
द्वादशी तिथि- यह यशोबली और सर्वसिद्धिकारी तिथि है। इसके देवता हरि हैं। भद्रा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म मसूर है।
त्रयोदशी तिथि- यह जयकारी और सर्वसिद्धिकारी तिथि है। इसके देवता मदन (कामदेव) हैं। जया नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म बैंगन है।
चतुर्दशी तिथि- क्रूरा और उग्रा तिथि है। इसके देवता शिवजी हैं। रिक्ता नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में शुभ, कृष्ण पक्ष में अशुभ, त्याज्य कर्म मधु है।
पूर्णिमा तिथि- यह सौम्य और पुष्टिदा तिथि है। इसके देवता चंद्रमा हैं। पूर्णा नाम से ख्याति, शुक्ल पक्ष में पूर्ण शुभ, त्याज्य कर्म घृत है।
अमावस्या तिथि- पीड़ाकारक और अशुभ तिथि है। इसके स्वामी पितृगण हैं। फल अशुभ है, त्याज्य कर्म मैथुन है।
शुभ ग्राह्य तिथियां
बच्चे नाम रखना- प्रतिपदा (कृष्ण पक्ष) तथा इसके अतिरिक्त दोनों पक्षों की 2, 3, 7, 10, 11, 12 13वीं तिथि तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
विद्यारंभ- शुक्ल पक्ष में 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13वीं तिथि तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
मुण्डन संस्कार- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
दुकान एवं बहीखाता प्रारंभ करना- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 7, 10, 12, 13वीं तिथि तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
नौकरी आरंभ करना- दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य है।
वाहन खरीदने के लिए- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
गृहारंभ एवं शिलान्यास- नींव खोदने एवं मकान बनवाने के लिए कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
नूतन घर में प्रवेश- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
भूमि खरीदने के लिए- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 5, 6, 10, 11, 13 तथा पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
विवाह मुहूर्त- कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्ष की 2, 3, 5, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13 एवं पूर्णिमा शुभ ग्राह्य।
(अधिकांश कार्यों में 4, 9, 14 तिथियों को जिन्हें रिक्ता नाम से ख्याति है, त्याज्य माना गया है। )
विशेष-
यदि रविवार को द्वादशी तिथि हो तो क्रकच और दग्धा नाम कुयोग तथा प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी होने पर मृत्युदा (पीड़ाकारक) योग होता है। इस दिन शेष सभी तिथियां शुभ हैं।
सोमवार को एकादशी होने पर क्रकच और दग्धा कुयोग और द्वितीया, सप्तमी तथा द्वादशी होने पर मृत्युदा योग होता है। शेष सभी तिथियां शुभ हैं।
मंगलवार को दशमी होने क्रकच और पंचमी होने पर दग्ध नामक कुयोग तथा प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी होने पर मृत्युदा नामक योग होता है। तृतीया, अष्टमी तथा त्रयोदशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
बुधवार को नवमी होने पर क्रकच, तृतीया होने पर दग्ध नामक कुयोग और तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी होने पर मृत्युदा नामक योग होता है। द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
गुरुवार को अष्टमी, षष्ठी होने पर क्रमश: क्रकच और दग्ध कुयोग तथा चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी होने पर मृत्युदा योग, पंचमी, दशमी, पूर्णिमा होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
शुक्रवार को सप्तमी होने पर क्रकच, अष्टमी होने पर दग्ध नाम कुयोग, द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी होने पर मृत्युदा योग और प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
शनिवार को षष्ठी होने पर क्रकच और नवमी होने पर दग्ध नामक कुयोग तथा पंचमी, दशमी पूर्णिमा होने पर मृत्युदा योग और चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी होने पर सिद्धिप्रद योग होता है।
(उपरोक्त दोष मध्याह्न के पश्चात न्यून हो जाते हैं और यदि सर्वार्थसिद्धि योग, अमृत योग, रवियोग इत्यादि दोषसंघ निवारक योग होता है तो तिथि जन्म दोष समाप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त चंद्रबल यदि उत्तम है तो भी तिथि के कारण उत्पन्न कुयोगों का निवारण हो जाता है- क्रकचो मृत्यु योगाख्यो दिने दग्ध तथैव च। चंद्रे शुभे क्षयं यान्ति वृक्षा वज्राहता इव।।)


एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की होती है। चंद्र मास में ३० तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।
तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।

हिन्दू काल गणना के अनुसार मास में ३० तिथियाँ होतीं हैं, जो दो पक्षों में बंटीं होती हैं। चन्द्र मास एक अमावस्या के अन्त से शुरु होकर दूसरे अमावस्या के अन्त तक रहता है. अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र का भौगांश बराबर होता है. इन दोनों ग्रहों के भोंगाश में अन्तर का बढना ही तिथि को जन्म देता है. तिथि की गणना निम्न प्रकार से की जाती है.
हमारे पर्व-त्योहार हिन्दी तिथियों के अनुसार ही होते हैं, इसके पीछे एक विशेष कारण है। पर्व-त्योहारों में किसी विशेष देवता की पूजा की जाती है। अतः स्वाभाविक है कि वे जिस तिथि के अधिपति हों, उसी तिथि में उनकी पूजा हो। यही कारण है कि उस विशेष तिथि को ही उस विशिष्ट देवता की पूजा की जाए। तिथियों के स्वामी संबंधी वर्णन निम्न है :
  1. प्रतिपदा- अग्नयादि देवों का उत्थान पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को होता है। अग्नि से संबंधित कुछ और विशेष पर्व प्रतिपदा को ही होते हैं।
  2. द्वितीया- प्रजापति का व्रत प्रजापति द्वितीया इसी तिथि को होता है।
  3. तृतीया- चूँकि गौरी इसकी स्वामिनी है, अतः उनका सबसे महत्वपूर्ण व्रत हरितालिका तीज भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया को ही महिलाएँ करती हैं।
  4. चतुर्थी- गणेश या विनायक चतुर्थी सर्वत्र विख्यात है। यह इसलिए चतुर्थी को ही होती है, क्योंकि चतुर्थी के देवता गणेश हैं।
  5. पंचमी- पंचमी के देवता नाग हैं, अतः श्रावण में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की दोनों चतुर्थी को नागों तथा मनसा (नागों की माता) की पूजा होती है।
  6. षष्ठी- स्वामी कार्तिक की पूजा षष्ठी को होती है।
  7. सप्तमी- देश-विदेश में मनाया जाने वाला सर्वप्रिय त्योहार प्रतिहार षष्ठी व्रत (डालाछठ) यद्यपि षष्ठी और स्वामी दोनों दिन मनाया जाता है, किंतु इसकी प्रधान पूजा (और उदयकालीन सूर्यार्घदान) सप्तमी में ही किया जाता है। छठ पर्व के निर्णय में सप्तमी प्रधान होती है और षष्ठी गौण। यहाँ ज्ञातव्य है कि सप्तमी के देवता सूर्य हैं।
वस्तुतः सायंकालीन अर्घ्य में हम सूर्य के तेजपुंज (सविता) की आराधना करते हैं, जिन्हें 'छठमाई' के नाम से संबोधित करके उन्हें प्रातःकालीन अर्घ्य ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया जाता है, जिसे ग्रामीण अंचलों में 'न्योतन' कहा जाता है, पुनः प्रातःकालीन सूर्य को 'दीनानाथ' से संबोधित किया जाता है।

तिथि = चन्द्र का भोगांश - सूर्य का भोगांश
  • शुक्ल पक्ष में १-१४ और पूर्णिमा-शुक्ल पक्ष हिन्दू काल गणना अनुसार पूर्णिमांत माह के द्वितीयार्ध पक्ष (१५ दिन) को कहते हैं। यह पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक होता है।
पूर्णिमा
  • चैत्र की पूर्णिमा के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है।
  • वैशाख की पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है।
  • ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन वट सावित्री मनाया जाता है।
  • आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू-पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। इसी दिन कबीर जयंती मनाई जाती है।
  • श्रावण की पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का पर्व मनाया जाता है।
  • भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन उमा माहेश्वर व्रत मनाया जाता है।
  • अश्विन की पूर्णिमा के दिन शरद पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
  • कार्तिक की पूर्णिमा के दिन पुष्कर मेला और गुरुनानक जयंती पर्व मनाए जाते हैं।
  • मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन श्री दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है।
  • पौष की पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयंती मनाई जाती है। जैन धर्म के मानने वाले पुष्यभिषेक यात्रा प्रारंभ करते हैं। बनारस में दशाश्वमेध तथा प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर स्नान को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
  • माघ की पूर्णिमा के दिन संत रविदास जयंती, श्री ललित और श्री भैरव जयंती मनाई जाती है। माघी पूर्णिमा के दिन संगम पर माघ-मेले में जाने और स्नान करने का विशेष महत्व है।
  • फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन होली का पर्व मनाया जाता है।
  •  
  • कृष्ण पक्ष में १-१४ और अमावस्या-कृष्ण पक्ष हिन्दू काल गणना अनुसार पूर्णिमांत माह के उत्तरार्ध पक्ष (१५ दिन) को कहते हैं। यह पक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक होता है।
अमावस्या
·        पंचांग के अनुसार माह की ३०वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्व हैं। हर माह की अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता हैं। सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। भाद्रपद अमावस्या के दिन पोला मनाया जाता है।
·        कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली पर्व मनाया जाता हैं।
·        पाँच अंगो के मिलने से पंचाग बनता है, ये पाँच अंग इस प्रकार हैं:-
1) तिथि (Tithi)
2) वार (Day)
3) नक्षत्र (Nakshatra)
4) योग (Yog)
5) करण (Karan)
चान्द्र मास (Chand Masa) में कुल 30 तिथियाँ होती हैं जिनमें 15 तिथियाँ शुक्ल पक्ष (Shukla Pakshya) और 15 कृष्ण पक्ष (Krishna Pakshya) की होती हैं. तिथियाँ निम्न प्रकार से हैं:-
1) प्रतिपदा (Pratipada) (परिवा/ पडिवा/ परमा)
2) द्वितीया (दूज/ दोज)
3) तृतीया (तीज)
4) चतुर्थी (चौथ)
5) पंचमी (पाँचे)
6) षष्टी (षष्ट/ छटें/ छट)
7) सप्तमी (सातें)
8) अष्टमी (आठें)
9) नवमी (नमें)
10) दशमी (दसें)
11) एकादशी (ग्यारस)
12) द्वादशी (बारस)
13) त्रयोदशी (तेरस)
14) चतुर्दशी ( चौदस)
15) पूर्णिमा (पूनों)
30) अमावस्या (अमावस)

तिथियाँ शुक्लपक्ष (Shukla Pakshya) की प्रतिपदा (Pratipada) से गिनी जाती है. पूर्णिमा (Purnima) को 15 तथा अमावस्या (Amabasya) को 30 तिथि कहते हैं. जिस दिन सूर्य व चन्द्रमा में 180º का अन्तर (दूरी) होता है अर्थात सूर्य व चन्द्र आमने सामने होते हैं तो वह पूर्णिमा तिथि कहलाती है. और जब सुर्य व चन्द्रमा एक ही स्थान पर होते हैं अर्थातका अन्तर होता है तो अमावस्या तिथि कहलाती है. भचक्र का कुलमान (Kulman) 360º है, तो एक तिथि=360»30=12º अर्थात सूर्य-चन्द्र में 12º का अन्तर पडने पर एक तिथि होती है.
उदाहरण स्वरुपसे 12º तक प्रतिपदा (शुक्ल पक्ष) 12º से 24º तक द्वितीय तथा 330º से 360º तक अमावस्या इत्यादि. भारतीय ज्योतिष की परम्परा में तिथि की वृद्धि एंव तिथि का क्षय भी होता है. जिस तिथि में दो बार सूर्योदय आता है वह वृद्धि तिथि कहलाती है तथा जिस तिथि में एक भी सूर्योदय न हो तो उस तिथि का क्षय हो जाता है. उदाहरण के लिए एक तिथि सूर्योदय से पहले प्रारम्भ होती है तथा पूरा दिन रहकर अगले दिन सूर्योदय के 2 घंटे पश्चात तक भी रहती है तो यह तिथि दो सूर्योदय को स्पर्श कर लेती है. इसलिए इस तिथि में वृद्धि हो जाती है . इसी प्रकार एक अन्य तिथि सूर्योदय के पश्चात प्रारम्भ होती है तथा दूसरे दिन सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाती है, क्योंकि यह तिथि (Tithi) एक भी सूर्योदय को स्पर्श नहीं करती अतः क्षय होने से तिथि क्षय (Tithikshya) कहलाती है.

ये युगादि तिथियाँ बताई गयी हैं, अब मन्वन्तर की प्रारंभिक तिथियों का श्रवण कीजिये । अश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, चैत्र और भाद्र की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की पूर्णिमा, कार्तिक की पूर्णिमा, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ की पूर्णिमा ये मन्वन्तर की आदि तिथियाँ हैं, जो दान के पुण्य को अक्षय करने वाली हैं ।
क्ष और ग्रहण के सम्बन्ध में जानकारी
पक्ष और ग्रहण के सम्बन्ध में जानकारी
एक महीने में दो पक्ष होते है -----पहला पक्ष कृष्ण पक्ष और दूसरा पक्ष शुक्ल पक्ष |
कृष्ण पक्ष में अमावस्या होती है और शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा होती  है जब भी ग्रहण होते है तो अमावस्या को सूर्य ग्रहण होता है | पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण होता है |
पूर्णिमा के बाद का पहला दिन [ प्रतिपदा ] कृष्ण पक्ष का होता है, जबकि अमावस्या के बाद का पहला दिन [ प्रतिपदा ] शुक्ल पक्ष का होता है |
तिथियों की पूर्ण जानकारी
तिथियाँ १५ होती है और पक्ष में भी १५ होती  है |
तिथियों के स्वामी ---- प्रतिपत का स्वामी = अग्नि द्वितीय का = ब्राह्ग  , तृतीया का स्वामी =  पार्वती शिव , चतुर्थ का स्वामी = गणेशजी , पंचमी का स्वामी =सर्पदेव ( नाग ) , षष्ठी का स्वामी = कार्तिकेय , सप्तमी का स्वामी = सूर्यदेव , अष्टमी का स्वामी = शिव , नवमी का स्वामी = दुर्गाजी , दशमी का स्वामी = यमराज , एकादशी का स्वामी = विश्वदेव , द्वादशी का स्वामी = विष्णु भगवान , त्रयोदशी का स्वामी = कामदेव , चतुर्दशी का स्वामी = शिव , पूर्णिमा का स्वामी = चन्द्रमा , अमावस्या का स्वामी = पित्रदेव |
नोट -- जिस देवता की जो विधि कही गई है उस तिथि में उस देवता की पूजा , प्रतिष्ठा , शांति विशेष हितकर होती है |
तिथियों के अनुसार शुभ जानकारी --
 प्रथम खंड
 द्वितीय खंड
 तृतीय खंड
 नाम 
प्रतिपत
षष्ठी
 एकादशी
 नंदा 
द्वितीया
 सप्तमी 
 द्वादशी 
 भद्रा
 तृतीया
 अष्टमी 
 त्रयोदशी 
 जया
 चतुर्थी 
 नवमी 
 चतुर्दशी 
 रिक्ता
 पंचमी 
 दशमी 
पूर्णिमा
 पूर्ण 
 नोट -- शुक्ल पक्ष में नंदा , भद्रा  , जया , रिक्त , और पूर्ण क्रम से अशुभ , मध्य और शुभ होती है |
अर्थात  शुक्ल पक्ष में ऊपर लिखी हुई
प्रथम खंड की पांच तिथियाँ  अशुभ होती है |
 द्वितीया खंड की पाँच तिथियाँ मध्यम
और तृतीया के पाँच तिथियाँ उत्तम होती है |

इसी तरह कृष्ण पक्ष में--   
प्रथम खंड की पाँच तिथियाँ शुभ होती है |
द्वितीया की  पाँच तिथियाँ मध्य होती है |

तृतीया से  पाँच तिथियाँ अशुभ होती है |
सामान्यत: तिथियों को ५ पांच श्रेणियों  में बांटा  गया है |
१.  नंदा तिथि : दोनों पक्षों की प्रतिपदा , षष्ठी व्  एकादशी (१,,११,) नंदा तिथि कहलाती है | तिथि  गंडांत काल /समय प्रथम घटी  या शुरुआत के २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए इन तिथियों को शुभ माना जाता है |
२.  भद्रा तिथि : दोनों पक्षों की द्वितीया , सप्तमी , व् द्वादशी (२,,१२,) भद्रा तिथि  कहलाती है | व्रत,जप, ताप, दान-पुण्य,
जैसे  धार्मिक  कार्यों के लिए ही शुभ मानी जाती है |
३.  जया तिथि : दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी , व् त्रयोदशी (३,,१३,) जया तिथि कहलाती है | गायन , वादन  जैसे शुभ कार्य ही  किये जा सकते हैं |
४.  रिक्ता तिथि : दोनों पक्षों की चतुर्थी , नवमी,व् चतुर्दशी (४,,१४,) रिक्ता तिथि कहलाती है | तीर्थ यात्राएँ, मेले आदि के लिए ठीक होती हैं |
५.  पूर्णा तिथि : दोनों पक्षों की पंचमी , दशमी, पूर्णिमा, और  अमावस (५,१०,१५,३०,) पूर्णा तिथि  कहलाती हैं | तिथि
गंडांत काल  तिथि के अंतिम एक घटी या अंतिम २४ मिनट को छोड़कर सभी प्रकार के मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ 
शुभ मानी जाती हैं |
ऋतु (Seasons) : वर्ष में कुल ६ ऋतुएँ होती हैं , एक ऋतु की अवधि दो मास की होती है | अलग अलग ऋतुओं में अलग - अलग मौसम होता है
ऋतुओं में मौसम एवं अवधि की समय सारिणी
क्र.  ऋतु    चंद्रमास अवधि          अंग्रेजी मास अवधि                            मौसम   
१. बसंत     चैत्र व् वैशाख                मध्य मार्च से मध्य मई                          सौम्य 
२. ग्रीष्म     ज्येष्ठ व् आषाढ़            मध्य मई से मध्य जुलाई                       तीव्र गर्मी
३. वर्षा        श्रावण व् भाद्रपद           मध्य जुलाई से मध्य सितम्बर              वर्षा वाला
४. शरद      आश्विन व् कार्तिक      मध्य सितम्बर से मध्य नवम्बर           अधिक ठण्ड
५. हेमंत       मार्गशीर्ष व् पौष          मध्य नवम्बर से मध्य जनवरी               हिमपात
६. शिशिर    माघ व् फाल्गुन           मध्य जनवरी से मध्य मार्च                     सौम्य
विशेष तिथियाँ :  उपरोक्त तिथियों में कुछ तिथियाँ विशेष कहलाती हैं | जिनमें  कुछ तिथियाँ अच्छी व् मंगलमय होती हैं
एवं कुछ तिथियाँ अशुभ या शुभ कार्यों के लिए वर्जित होती हैं | ये तिथियाँ निम्न प्रकार से हैं :
१.  युगादि तिथियाँ  :सतयुग प्रारम्भ तिथि कार्तिक शुक्ल नवमी , त्रेतायुग प्रारम्भ तिथि वैशाख शुक्ल तृतीया
द्वापरयुग प्रारम्भ तिथि माघ कृष्ण पक्ष अमावस ,कलियुग प्रारम्भ तिथि भाद्रपद कृष्ण पक्ष त्रयोदशी आदि तिथियाँ हैं |
२.  सिद्धा  तिथियाँ :  मंगलवार की ३,, १३, तृतीया , अष्टमी, त्रयोदशी, बुधवार की  ,, १२  द्वितीया, सप्तमी, द्वादशीगुरूवार की ५,१०,१५, पंचमी, दशमी, पूर्णिमा, व् अमावस , शुक्रवार की १,,११, प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी, और शनिवार की ४,,१४, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी , तिथियाँ सिद्धा तिथियाँ कहलाती हैं  तथा सभी कार्यों के लिए शुभ मानी जाती हैं |
३.  पर्व तिथियाँ : कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी, और अमावस  तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और
संक्रान्ति  तिथि पर्व तिथि कहलाती हैं |इनको शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ दिया जाता है |
४.  प्रदोष तिथियाँ : द्वादशी तिथी अर्धरात्रि पूर्व , षष्ठी तिथि रात्रि से ४ चार घंटा ३० तीस मिनट पूर्व, एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ तीन घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं , इनमें सभी शुभ  कार्य वर्जित हैं |
५.  दग्धा , विष, हुताशन , तिथियाँ : दग्ध, विष, हुताशन, तिथियाँ क्रमशः  रविवार को १२,, १२, सोमवार  को ११,,मंगलवार को ५,,  बुधवार को ३,,, गुरूवार को  ,,, शुक्रवार को  ,,१०, शनिवार को ९,,११, होती हैं उपरोक्त  सभी वारों में जो तिथियाँ आती हैं  वो क्रमशः दग्धा , विष, हुताशन  तिथियों में आती हैं | ये सभी तिथियाँ  अशुभ और  हानिकारक मानी जाती हैं |
६.  वृद्धि तिथि :  सूर्योदय के पूर्व प्रारम्भ  होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि वृद्धि तिथि कहलाती है| इसे तिथि वृद्धि भी कहते हैं, सभी मुहूर्तों के लिए ये अशुभ होती है |
७.  क्षय तिथि : सूर्योदय के पश्चात प्रारम्भ  होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि क्षय तिथि कहलाती है | इसे तिथि क्षय भी कहते हैं , ये तिथि भी सभी मुहूर्तों के लिए अशुभ होती है |
८.  गंड तिथि :  सभी पूर्णा तिथियों  ,१०,१५,३०, यानी  पंचमी , दशमी, पूर्णिमा , अमावस  कि अंतिम एक घटी या २४
मिनट  तथा नंदा तिथियों १,,११, यानी  प्रतिपदा , षष्ठी, एकादशी  की  प्रथम एक घटी या २४ मिनट  गंड तिथियों की
श्रेणी में आती हैं | इन्हें  तिथि गंडांत भी कहते हैं | इन तिथियों की उक्त घटी अथवा २४ मिनट को सभी मुहूर्तों के लिए वर्जित माना  जाता  है , अतः इस समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए |

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