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ज्योतिष शास्त्र - एक परिचय

सामान्य भाषा में कहें तो ज्योतिष माने वह विद्या या शास्त्र जिसके द्वारा आकाश स्थित ग्रहों,नक्षत्रों आदि की गति,परिमाप, दूरी इत्या‍दि का निश्चय किया जाता है।ज्योतिषशास्त्र लेकर हमारे समाज की धरण है कि इससे हमें भविष्य में घटनेवाली घटनाओं के बारे में आगे ही पता जाता है। वास्तव में ज्योतिषशास्त्र का रहस्य अथवा वास्तविकता आज भी अस्पष्ट है, या इस विद्या पर अन्धविश्वास हमें हमेशा ही भटकता रहता है। इसी विषय पर तर्कपूर्ण विचार प्रकट कर रहा हूँ।

ज्योतिषशास्त्र वज्योतिषी के ऊपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे अपनी आपबीती एवं अनुभवों की बातें सुनते हैं। उन बातों मेंज्योतिषी द्वारा की गई भविष्यवाणी में सच हने वाली घटना का उल्लेख होता है। इन घटनाओं में थोड़ी बहुत वास्तविकता नजर आती है। वहीं कई घटनाओं में कल्पनाओं का रंग चडा रहता है क्योंकि कभी - कभार ज्योतिषी कीभविष्यवाणी सच होती है ? इस सच के साथ क्या कोई संपर्कज्योतिष शास्त्र का है?ज्योतिषियों कीभविष्यवाणी सच होने के पीछे क्या राज है ?ज्योतिषी इस शास्त्र के पक्ष में क्या - क्या तर्क देते हैं ? यह तर्क कितना सही है ?ज्योतिषशास्त्र की धोखाधड़ी के खिलाफ क्या तर्क दिये जाते हैं? इन सब बातों की चर्चा हम जरुर करेंगे लेकिन जिस शास्त्र को लेकर इतना तर्क - वितर्क हो रहा है ; उस बारे में जानना सबसे पहले जरुरी है। तो आइये , देखें क्या कहता हैंज्योतिषशास्त्र।

ज्योतिष को चिरकाल से सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है । वेद शब्द की उत्पति "विद" धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना या ज्ञान है ।ज्योतिष शास्त्रतारा जीवात्मा के ज्ञान के साथ ही परम आस्था का ज्ञान भी सहज प्राप्त हो सकता है ।

ज्‍योतिष शास्‍त्र मात्र श्रद्धा और विश्‍वास का विषय नहीं है, यह एक शिक्षा का विषय है।

पाणिनीय-शिक्षा41 के अनुसर''ज्योतिषामयनंयक्षुरू''ज्योतिष शास्त्र ही सनातन वेद का नैत्रा है। इस वाक्य से प्रेरित होकर '' प्रभु-कृपा ''भगवत-प्राप्ति भी ज्योतिष के योगो द्वारा ही प्राप्त होती है।

मनुष्य के जीवन में जितना महत्व उसके शरीर का है, उतना ही सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों अथवा आसपास के वातावरण का है। जागे हुए लोगों ने कहा है कि इस जगत में अथवा ब्रह्माण्ड में दो नहीं हैं। यदि एक ही है, यदि हम भौतिक अर्थों में भी लें तो इसका अर्थ हुआ कि पंच तत्वों से ही सभी निर्मित है। वही जिन पंचतत्वों से हमारा शरीर निर्मित हुआ है, उन्हीं पंच तत्वों से सूर्य, चंद्र आदि ग्रह भी निर्मित हुए हैं। यदि उनपर कोई हलचल होती है तो निश्चित रूप से हमारे शरीर पर भी उसका प्रभाव पड़ेगा,क्योंकि तत्व तो एक ही है। 'दो नहीं हैं। o का आध्यात्मिक अर्थ लें तो सबमें वहीं व्याप्त है, वह सूर्य, चंद्र हों, मनुष्य हो,पशु-पक्षी, वनस्पतियां,नदी, पहाड़ कुछ भी हो,गहरे में सब एक ही हैं। एक हैं तो कहीं भी कुछ होगा वह सबको प्रभावित करेगा। इस आधार पर भी ग्रहों का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है। यह अनायास नहीं है कि मनुष्य के समस्त कार्य ज्योतिष के द्वारा चलते हैं।

दिन, सप्ताह, पक्ष,मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सव तिथि का परिज्ञान के लिए ज्योतिष शास्त्र को केन्द्र में रखा गया है। मानव समाज को इसका ज्ञान आवश्यक है। धार्मिक उत्सव,सामाजिक त्योहार,महापुरुषों के जन्म दिन, अपनी प्राचीन गौरव गाथा का इतिहास, प्रभृति, किसी भी बात का ठीक-ठीक पता लगा लेने में समर्थ है यह शास्त्र। इसका ज्ञान हमारी परंपरा, हमारे जीवन व व्यवहार में समाहित है। शिक्षित और सभ्य समाज की तो बात ही क्या, अनपढ़ और भारतीय कृषक भी व्यवहारोपयोगी ज्योतिष ज्ञान से परिपूर्ण हैं। वह भलीभांति जानते हैं कि किस नक्षत्र में वर्षा अच्छी होती है, अत: बीज कब बोना चाहिए जिससे फसल अच्छी हो। यदि कृषक ज्योतिष शास्त्र के तत्वों को न जानता तो उसका अधिकांश फल निष्फल जाता। कुछ महानुभाव यह तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में कृषि शास्त्र के मर्मज्ञ असमय ही आवश्यकतानुसार वर्षा का आयोजन या निवारण कर कृषि कर्म को संपन्न कर लेते हैं या कर सकते हैं। इस दशा में कृषक के लिए ज्योतिष ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। परन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का विज्ञान भी प्राचीन ज्योतिष शास्त्र का ही शिष्य है।ज्योतिष सीखने की इच्छा अधिकतर लोगों में होती है। लेकिन उनके सामने समस्या यह होती है कि ज्योतिष की शुरूआत कहाँ से की जाये? बहुत से पढ़ाने वाले ज्योतिष की शुरुआत कुण्डली-निर्माण से करते हैं। ज़्यादातर जिज्ञासु कुण्डली-निर्माण की गणित से ही घबरा जाते हैं। वहीं बचे-खुचेभयात/भभोतजैसे मुश्किल शब्द सुनकर भाग खड़े होते हैं।अगर कुछ छोटी-छोटी बातों पर ग़ौर किया जाए, तो आसानी से ज्योतिष की गहराइयों में उतरा जा सकता है।

लेखक एवं संकलन कर्ता: पेपसिंह राठौड़ तोगावास

Thursday 3 July 2014

विवाह बंधन से पहले ज्योतिष की उपयोगिता



विवाह बंधन से पहले ज्योतिष की उपयोगिता

शादी से पहले ध्यान रखें ये बात या विवाह पूर्व जन्मकुंडली मिलान:-
विवाहार्थ कुंडली मिलान विशेष विचार कर कीजिये! श्री शुभेद्गा शर्मन भारतीय ज्योतिष परंपरा में विवाह-निर्णय के लिए वर-वधू मेलापक सारिणी का प्रयोग किया जाता है। तथापि वर-वधू के जीवन के सामंजस्य का श्रेष्ठ मिलान नहीं होता तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टमय तथा अनेक कमियों से त्रस्त हो जाता है जिससे दांपत्य जीवन में अनेक विकट विडम्बनाएं उत्पन्न हो जाती हैं जिन्हें संभालना कठिन हो जाता है।
साधारणतया अष्टकूट अर्थात् तारा, गुण, वश्य, वर्ण, वर्ग, नाड़ी, योनी, ग्रह, गुण आदि के आधार पर सभी पंचागों में ''वर-वधु मेलापक सारिणी'' मुद्रित होती है। उसमें गुणों की संखया के साथ दोषों के संकेत भी दिये जाते हैं।
सर्वश्रेष्ठ मिलान में 36 गुणों का होना श्रेष्ठ मिलान का प्रतीक माना गया है। उससे आधे अर्थात 18 गुण से अधिक होना ही कुंडली-मिलान का धर्म कांटा मान लिया जाता है। इससे अधिक जितने भी गुण मिलें, वह श्रेष्ठ मिलान का प्रतीक होता है।
जहां दोषों का संकेत होता है उनमें भी शुभ नव पंचम, अशुभ नवपंचम अथवा सामान्य नव पंचम या श्रेष्ठ द्विर्द्वादश, प्रीति षडाष्टक, केंद्र के शुभ-अशुभ का आकलन करके सभी ज्योतिर्विद मिलान करते आये हैं और करते रहेंगे, सामान्यतया इन मिलानों का लाभ राम भरोसे सभी सज्जन उठाते हैं। इस प्रकार के मिलानों में दोषों का परिहार भी हमें मिल जाता है जैसे- नाड़ी दोषोऽस्ति विप्राणा, वर्ण दोषोऽस्ति भूभुजाम्। वैश्यानां गणदोषाः स्यात् शूद्राणां योनि दूषणम्॥ ब्राह्मणों में नाड़ी दोष मानना आवश्यक है, क्षत्रियों को वर्ण दोष की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। वैश्यों में गण दोष को प्रधान माना गया है। शूद्रों के लिए योनी दोष की उपेक्षा न करना ज्योतिष शास्त्र सम्मत है किंतु आज के वर्णहीन समाज की स्थिति में ब्राह्मण कौन हैं? क्षत्रिय कहां हैं? वैश्य कौन है? शूद्र किसको माने? क्योंकि समाज की संपूर्ण कार्य और कर्त्तव्य प्रणाली आज गड्ड मड्ड हो गयी है।
जाति का अलंकार जन्म से या कर्म से किससे मानना चाहिए आज सबके सामने यह एक ज्वलंत प्रश्न खड़ा होता जा रहा है। जन्मकुंडली में चंद्र नक्षत्र के आधार पर हम राशि, राशि स्वामी, नाड़ी, वर्ण, वश्य अंकित करते हैं। इन सबका उपयोग कुंडली मिलान के समय किया जाता है। वर्ण दोष आ रहा है तो क्या निर्णय किया जाये, आज यही समस्या सामने है। वैश्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र अपने को शूद्रादि किस रूप में मानें, जन्म से या कर्म से। एक श्लोक के अनुसार इस निर्णय को भी धराशायी कर दिया गया है- जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात् द्विज उच्यते। वेदपाठीभवेद् विप्र, ब्रह्मो जानाति ब्राह्मण॥
जन्म कुंडली मिलान करते समय गुण मिलान के निर्णय के अनुकूल होने पर भी कुंडली में स्थित ग्रहों के उच्च नीच, शत्रु मित्रों के योगायोग तथा उनके स्वभाव प्रकृति के अनुसार दशा, महादशा, अंतर्दशा तथा कुंडली के मारकेशों एवं आयु का प्राकलन श्रेष्ठ हो तो मिलान को श्रेष्ठता का निर्णायक मानना चाहिए।
मंगली जातकों की कुंडली में मंगल, सूर्य, शनि, राहु, केतु की स्थिति पर विचार करना अतिआवश्यक है लग्न सप्तम में सूर्य, शनि, राहु, केतु, मंगल आदि क्रूर विघटनकारी ग्रहों का सामंजस्य बैठाये बिना दांपत्य में अनावश्यक रूप से विघटन होगा ही होगा। अतः सप्तम स्थान में सूर्य तथा राहु की स्थिति पर अत्यंत ध्यान पूर्वक विचार करके मिलान का निर्णय करना चाहिए।
कन्या की कुंडली में सप्तम स्थान में स्थित सूर्य का समुचित आकलन करना चाहिए। ऐसे दोषों को अवश्य मानना चाहिए जैसे लग्न में शनि है और चतुर्थ में मंगल है, अष्टम में राहू है। उनका मंगल दोष दुगुना हो जाता है। क्रूर ग्रह अपनी क्रूरता नहीं छोड़ता। कुछ न कुछ ऐसी बिडंवना उत्पन्न करता है कि जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है। वक्री ग्रहों के स्वभाव तथा स्थान पर विचार करना भी उचित है।
केवल गुण मिलान पर संतोष कर लेना भावी दंपति के जीवन से खिलवाड़ करना है। इसी प्रकार 4, 8 और लग्न में, सप्तम में और 12वें भाव में मांगलिक दोषों का ध्यान रखना चाहिए। सामान्य से सामान्य कुंडलियां मिलान करते समय मांगलिक दोष ध्यान में रखना चाहिए। लग्न से लेकर 12वें भाव तक शत्रु, मित्र अथवा सम-मिलान सिद्धांत पर भी ध्यान देना चाहिए। विशेषतः लग्नेश 2, 3, 5 और सातवें भाव के स्वामी आपस में मित्र हों। अगर मंगल के साथ चंद्र भी हो तो मांगलिक दोष का प्रभाव कम हो जाता है। शुक्र से भी मंगली विचार पर ध्यान देना चाहिए। मंगली विशेष होने पर लड़की के लिए विष्णु विवाह, घट विवाह आदि का परिहार किया जा सकता है। वैसे ही सप्तम में राहू होने की स्थिति में लड़का अथवा लड़की की कुंडली में सप्तम भाव में मंगल होने पर राहू का दोष कम हो जाता है अगर उपरोक्त दोषों के साथ विवाह हो भी गया है तो उसके लिए विशेष समाधान पुनः उसी जोड़े से करवाना चाहिए और निरंतर गाय की सेवा करनी चाहिए। शनि, सूर्य, राहू सप्तम में होने पर दोष पूर्ण माने गये हैं, परंतु अकेले शुक्र और बृहस्पति भी इस स्थान पर होने पर पत्नी अथवा पति हंता योग बनाते हैं। प्रयत्न करना चाहिए कि दोषों को टाला जाए। विशेष परिस्थितियों में ही उपाय का सहारा लेना चाहिए अन्यथा जीवन में कुछ बड़ी कमियां जरूर रह जाती हैं।
एक व्यक्ति में बाहरी आकर्षण तो हो सकता हैलेकिन भीतर से वह पत्थर हृदय वाला और स्वार्थी हो सकता हैइसीलिए लोग विवाह बंधन से पहले कुंडली की व्याख्या कराना जरूरी समझते हैं। कुंडली के बारह भावों में सप्तम भाव दांपत्य का है। इस भाव के अलावा आयुभाग्यसंतानसुखकर्मस्थान का पूर्णत: विश्लेषण एक सीमा में अनिवार्य माना जाता है।

वैवाहिक बंधन जीवन का सबसे महत्वपूर्ण बंधन है। विवाह प्यार और स्नेह पर अधारित एक संस्था है। यह वह पवित्र बंधन हैजिसपर पूरे परिवार का भविष्य निर्भर करता है। समान्यत: कुंडली में अष्ट कुट एवं मांगलिक दोष ही देखा जाता हैलेकिन यह जान लेना अनिवार्य है कि कुंडली मिलान की अपेक्षा कुंडली की मूल संरचना अति महत्वपूर्ण है।
एक व्यक्ति में बाहरी आकर्षण तो हो सकता हैलेकिन भीरत से वह पत्थर हृदय वाला और स्वार्थी भी हो सकता हैजाहिर है कि कुंडली की विस्तृत व्याख्या अनिवार्य मानी जाती है। कुंडली के बारह भावों में सप्तम भाव दांपत्य का हैइस भाव के अलावे आयुभाग्यसंतानसुखकर्मस्थान का पूर्णत: विश्लेषण एक सीमा में अनिवार्य है।
नवमांश कुंडली सप्तांशचतुर्विशांशसप्तविशांश के अलावा रोग के लिए त्रिशांश कुंडली भी देखी जाती है। लड़कों के लिए शुक्र एवं लड़कियों के लिए गुरु कारक ग्रह हैइसकी स्थिति देखना अनिवार्य है। पुन: गुरु से सप्तमचंद्र से सप्तम एवं सप्तम भाव के अधिपति की शुभ स्थिति देखी जाती है। शुभ ग्रह उसे कहते है जो स्वगृहीमित्रगृही या उच्च हो।
आजकल शादी में सिर्फ लड़की का रूप-रंग ही देखा जाता हैजबकि सामान्य कद-काठी और रूप-रंग के बच्चे भी यदि अत्यंत भाग्यशाली हुएतो घर की स्थिति उत्तरोत्तर अच्छी होती जाती है और घर में चार चांद लग जाते हैं। कई मामलों में मांगलिक दोष भी भंग हो जाता हैलेकिन उसे मांगलिक मान लिया जाता है और शादियां कट जाती हैं।
सप्तम भाव के ग्रह का विभिन्न भाव में शुभ स्थिति में फल
यदि सप्तम भाव का स्वामी प्रथम भाव में हो तो वह ऐसे व्यक्ति से शादी करेगा जिसे वह बचपन से जानता हो। पति एवं पत्नी प्रखर बुद्धि के होंगे और सभी बातों की जांच करने की क्षमता होगी। यदि यह दूसरे भाव में हो तो पत्नी धनी होगी या उसके आने के बाद धन होगा। यदि तीसरे भाव में हो तो भाई भाग्यशाली होंगे एवं विदेश में निवास करेंगे। यदि सप्तमेश चौथे भाव में हो तो जीवन पूर्णत: प्रसन्न एवं खुशहाल होता है।
यदि पंचमभाव में हो तो पति या पत्नी संपन्न परिवार से होंगे और एक-दूसरे के लिए लाभकारी होंगे। छठे भाव में होने पर शुभ स्थिति नहीं रहतीलेकिन सप्तम भाव में स्थित होने से पति या पत्नी का व्यक्तित्व आकर्षक होता हैवह न्यायप्रिय और सम्मानित व्यक्ति होता है। अष्टम भाव में स्थित होने से उसकी शादी किसी पास के संबंध में ही हो जाती है और दोनों धनी रहते हैं। नवम भाव में स्थित होने से जातक के पिता विदेश में रहते हैंपत्नी सुसंस्कृत एवं आदर्श होती है।
दशम भाव में स्थित होने पर जातक विदेश में सफल होता हैयात्र निरंतर करनी पड़ती हैपति या पत्नी एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहते हैं। वहीं एकादश भाव में स्थित होने पर पत्नी धनी परिवार से होती है एवं अपने साथ प्रचूर धन लाती है। द्वादश भाव में होने पर  स्थिति शुभ नहीं रहती है।
दाम्पत्य भाव में स्थित ग्रहों का फल
अगर इस भाव में सूर्य हो तो जातक गोरा होगासिर पर बाल कम होंगेशादी विलंब से होगीउसमें कष्ट होगा। यदि इस भाव में चंद्रमा हो तो पति या पत्नी देखने में सुंदर होंगेलेकिन ईष्या की भावना होगी। इस भाव में मंगल हो तो जातक पर पत्नी का शासन रहेगा एवं दाम्पत्य तनावपूर्ण होगा। बुध वहां उपस्थित हो तो वह जातक सदाचारी और मिलनसार होगाउसे कानून या गणित का ज्ञान होगाउसे लिखने की क्षमता होगी। यहां गुरु होने से वह राजनयिक और कोमल हृदय वाला होगापति या पत्नी सुंदर होगीशिक्षा अच्छी होगीशादी से लाभ होगा। इस भाव मे शुक्रहो तो जातक का विवाहित जीवन सुखी रहेगापत्नी इसकी भक्त होगीलेकिन यह झगड़ालु होगा।
यहां शनि होने से विवाह विलंब से होगाजातक अपनी पत्नी के नियंत्रण में रहेगापत्नी कुरूप होगीलेकिन अत्यधिक मेहनती होगी। यदि यहां राहू हो तो यह जातक के परिवार के लिए दुख लेकर आयेगापत्नी स्त्रीजन्य रोग से पीड़ित होगी एवं आरामपसंद होगी। इस भाव में केतू रहने से पत्नी दुष्ट प्रकृति की होगी अथवा पति दुष्ट होगाजातक के पेट में असाध्य बीमारी होगी।
शादी से पहले ध्यान रखें ये बात–( KUNDALI MILAN BEFORE MERRIGE ) विवाह पूर्व जन्मकुंडली मिलान…(चन्द आवश्यक बातें)
हिंदू वैदिक संस्कृति में विवाह से पूर्व जन्म कुंडली मिलान की शास्त्रीय परंपरा है, लेकिन आपने बिना जन्म कुंडली मिलाए ही गंधर्व विवाह [प्रेम-विवाह] कर लिया है तो घबराएं या डरें नहीं, बल्कि यह मान लें कि ईश्वरीय शक्ति द्वारा आपका ग्रह मिलान हो चुका है।हिन्दू संस्कृति में विवाह को सर्वश्रेष्ठ संस्कार बताया गया है। क्योंकि इस संस्कार के द्वारा मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की सिद्धि प्राप्त करता है। विवाहोपरांत ही मनुष्य देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण से मुक्त होता है।
समाज में दो प्रकार के विवाह प्रचलन में हैं- पहला परंपरागत विवाह [प्राचीन ब्रह्मधा विवाह] और दूसरा अपरंपरागत विवाह [प्रेम विवाह या गंधर्व विवाह]।
परंपरागत विवाह माता-पिता की इच्छा अनुसार संपन्न होता है, जबकि प्रेम विवाह में लड़के और लड़की की इच्छा और रूचि महत्वपूर्ण होती है।
हिंदू धर्म शास्त्रों में हमारे सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन संस्कारों में काफी महत्वपूर्ण विवाह संस्कार। शादी को व्यक्ति को दूसरा जन्म भी माना जाता है क्योंकि इसके बाद वर-वधू सहित दोनों के परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। विवाह के बाद वर-वधू का जीवन सुखी और खुशियोंभरा हो यही कामना की जाती है।
ऐसा माना जाता है इस सृष्ठि में प्रत्येक जीवित प्राणी का अपना उर्जा क्षेत्र होता है। इन प्राणियों के उर्जा क्षेत्र किसी ना किसी ग्रह या किसी राशि के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। संसार के सभी उर्जा क्षेत्र किसी ग्रह या राशि के द्वारा परिचालित होने के कारण अन्य सभी उर्जा क्षेत्रों के साथ संगत नहीं होते हैं। उदाहरण स्वरुप, पानी और अग्नि का एक दूसरे के साथ मेल नहीं हो सकता,क्योंकि पानी आग को बुझा सकता है। यह वह स्थान है जहां कुंडली मिलान का रिवाज काफी महत्वपूर्ण हो जाता है, जैसाकि यह प्रस्तावित जोड़े की संगत के विषय में उचित राय देता है।
वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं। साथ ही दोनों की पत्रिका में ग्रहों की स्थिति को देखते हुए इनका वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? यह भी सटिक अंदाजा लगाया जाता है। यदि दोनों की कुंडलियां के आधार इनका जीवन सुखी प्रतीत होता है तभी ज्योतिषी विवाह करने की बात कहता है।
कुंडली मिलान से दोनों ही परिवार वर-वधू के बारे काफी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। यदि दोनों में से किसी की भी कुंडली में कोई दोष हो और इस वजह से इनका जीवन सुख-शांति वाला नहीं रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा विवाह नहीं कराया जाना चाहिए।
कुंडली के सही अध्ययन से किसी भी व्यक्ति के सभी गुण-दोष जाने जा सकते हैं। कुंडली में स्थित ग्रहों के आधार पर ही हमारा व्यवहार, आचार-विचार आदि निर्मित होते हैं। उनके भविष्य से जुड़ी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। कुंडली से ही पता लगाया जाता है कि वर-वधू दोनों भविष्य में एक-दूसरे की सफलता के लिए सहयोगी सिद्ध या नहीं। वर-वधू की कुंडली मिलाने से दोनों के एक साथ भविष्य की संभावित जानकारी प्राप्त हो जाती है इसलिए विवाह से पहले कुंडली मिलान किया जाता है।
व्यवहारिक रूप में गुण मिलान की यह विधि अपने आप में पूर्ण नहीं है तथा सिर्फ इसी विधि के आधार पर कुंडलियों का मिलान सुनिश्चित कर देना उचित नहीं है। इस विधि के अनुसार वर-वधू की कुंडलियों में नवग्रहों में से सिर्फ चन्द्रमा की स्थिति ही देखी जाती है तथा बाकी के आठ ग्रहों के बारे में बिल्कुल भी विचार नहीं किया जाता जो किसी भी पक्ष से व्यवहारिक नहीं है क्योंकि नवग्रहों में से प्रत्येक ग्रह का अपना महत्त्व है तथा किसी भी एक ग्रह के आधार पर इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया जा सकता। इस लिए गुण मिलान की यह विधि कुंडलियों के मिलान की विधि का एक हिस्सा तो हो सकती है लेकिन पूर्ण विधि नहीं। आइए अब विचार करें कि एक अच्छे ज्योतिषि को कुंडलियों के मिलान के समय किन पक्षों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य, स्वतंत्र विचारों, पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण अधिकतर अभिभावक चिंतित रहते हैं कि कहीं उनका लड़का या लड़की प्रेम विवाह तो नहीं कर लेगाक् विवाह पश्चात उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय रहेगा या नहींक् ऎसे कई प्रश्न माता-पिता के लिए तनाव का कारण बन सकते हैं। क्योंकि परंपरागत विवाह में जन्म कुंडली मिलने के बाद ही विवाह किया जाता है, जबकि प्रेम विवाह में जरूरी नहीं कि कुंडली मिलान किया जाए। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अधिकतर के पास जन्म कुंडली होती नहीं है। कई बार छिपकर भी प्रेम विवाह हो जाता है। विवाह होने के पश्चात जब माता-पिता को पता चलता है तो वह चिंतित हो उठते हैं क्या इनका दाम्पत्य जीवन सुखी और स्थायी रहेगा।
माता-पिता इस तरह की चिंता नहीं करें, बल्कि यह सोचें कि इनकी कुंडली या ग्रह तो स्वयं ईश्वर ने ही मिला दिए हैं, तभी तो इनका विवाह हुआ है।
ज्योतिषशास्त्र के अंतर्गत प्रेम विवाह में पंचम भाव से व्यक्ति के संकल्प, विकल्प इच्छा, मैत्री, साहस, भावना और योजना-सामथ्र्य आदि का ज्ञान होता है। सप्तम भाव से विवाह, दाम्पत्य सुख का विचार करते हैं। एकादश भाव इच्छापूर्ति और द्वितीय भाव पारिवारिक सुख-संतोष को प्रकट करता है।
सबसे पहले एक अच्छे ज्योतिषि को यह देखना चाहिए कि क्या वर-वधू दोनों की कुंडलियों में सुखमय वैवाहिक जीवन के लक्ष्ण विद्यमान हैं या नहीं। उदाहरण के लिए अगर दोनों में से किसी एक कुंडली मे तलाक या वैध्वय का दोष विद्यमान है जो कि मांगलिक दोष, पित्र दोष या काल सर्प दोष जैसे किसी दोष की उपस्थिति के कारण बनता हो, तो बहुत अधिक संख्या में गुण मिलने के बावज़ूद भी कुंडलियों का मिलान पूरी तरह से अनुचित हो सकता है। इसके पश्चात वर तथा वधू दोनों की कुंडलियों में आयु की स्थिति, कमाने वाले पक्ष की भविष्य में आर्थिक सुदृढ़ता, दोनों कुंडलियों में संतान उत्पत्ति के योग, दोनों पक्षों के अच्छे स्वास्थय के योग तथा दोनों पक्षों का परस्पर शारीरिक तथा मानसिक सामंजस्य देखना चाहिए। उपरोक्त्त विष्यों पर विस्तृत विचार किए बिना कुंडलियों का मिलान सुनिश्चित करना मेरे विचार से सर्वथा अनुचित है। इस लिए कुंडलियों के मिलान में दोनों कुंडलियों का सम्पूर्ण निरीक्षण करना अति अनिवार्य है तथा सिर्फ गुण मिलान के आधार पर कुंडलियों का मिलान सुनिश्चित करने के परिणाम दुष्कर हो सकते हैं।
सिर्फ गुण मिलान की विधि से ही 25 से अधिक गुण मिलने के कारण वर-वधू की शादी करवा दी गई तथा कुंडली मिलान के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया गया जिसके परिणाम स्वरुप इनमें से बहुत से केसों में शादी के बाद पति पत्नि में बहुत तनाव रहा तथा कुछ केसों में तो तलाक और मुकद्दमें भी देखने को मिले। अगर 28-30 गुण मिलने के बाद भी तलाक, मुकद्दमें तथा वैधव्य जैसी परिस्थितियां देखने को मिलती हैं तो इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि गुण मिलान की प्रचलित विधि सुखी वैवाहिक जीवन बताने के लिए अपने आप में न तो पूर्ण है तथा न ही सक्षम। इसलिए इस विधि को कुंडली मिलान की विधि का एक हिस्सा मानना चाहिए न कि अपने आप में एक सम्पूर्ण विधि।
केसे होता हें कुंडली मिलान
कुंडली मिलान, निर्धारित दिशा निर्देशों व नियमों की मदद से एक स्थिर समाज बनाने की क्षमता रखता है। उदाहरणस्वरुप, यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल काफी मजबूत का होता है, तो वह बहुत तीव्र, उत्साह से भरा हुआ तथा सक्रिय होता है। दूसरी ओर कमजोर मंगल वाला व्यक्ति में यह गुण नहीं होता। अब, यदि ऐसे दो लोगों का विवाह होता है तो , मजबूत मंगल वाला व्यक्ति को हमेशा लगेगा कि उसका साथी काफी सुस्त तथा अनुत्साहित है। इसी तरह कमजोर मंगल वाला अपनी साथी की गति तथा तीव्रता के कारण दबाव महसूस कर सकता है। इस तरह से यह एक आदर्श जोड़ा नही हो सकता है।
हिंदू या वैदिक ज्योतिष प्रणाली में, जोड़े के मिलान के लिए अष्टकुट विधि ( आठ बिंदु विधि) का इस्तेमाल किया जाता है। इस पद्धति के अनुसार, अनुकूलता की जांच करने के लिए आठ विभिन्न मापदंडों को माना जाता है और प्रत्येक मापदंड जीवन की एक विशेष पहलू का सूचक है। इस प्रणाली हमें यह जानने में मदद करता है कि दो लोग जीवन के विभिन्न पहलू में एक दूसरे के साथ आरामदायक हैं या नहीं। ये सभी मापदंड विभिन्न बिंदूओं का मिलान करता है। यदि मिलान बिंदू १८ से अधिक है, तो यह एक औसत मेल माना जाता है, जबकि १८ से कम बिंदूओं पर मिलान की सिफारिश नहीं की जाती। यदि मिलान बिंदू २४ से ज्यादा है तो मेल औसत से अच्छा है और यदि यह २८ से ज्यादा है तो इसे अच्छा मेल माना जाता है। कुंडली के मिलान के समय, सभी मापदंडों को ध्यान में रखा जाता है तथा निम्न वर्णित के आधार पर अधिकतम अंक दिए जाते हैं। यहां प्रत्येक मापदंड के अर्थ का उल्लेख किया गया है। यह पद्धति एक जोड़े की संगतता (अनुकूलता) को पहचानने के लिए सदियों से अजेय रहा है।
भारतीय ज्योतिष में विवाह शादी के लिए कुंडली मिलान के लिए गुण मिलान की विधि आज भी सबसे अधिक प्रचलित है। इस विधि के अनुसार वर-वधू की जन्म कुंडलियों में चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर निम्नलिखित अष्टकूटों का मिलान किया जाता है।
1)
वर्ण
2)
वश्य
3)
तारा
4)
योनि
5)
ग्रह-मैत्री
6)
गण
7)
भकूट
8)
नाड़ी
उपरोक्त अष्टकूटों को क्रमश: एक से आठ तक गुण प्रदान किये जाते हैं, जैसे कि वर्ण को एक, नाड़ी को आठ तथा बाकी सबको इनके बीच में दो से सात गुण प्रदान किये जाते हैं। इन गुणों का कुल जोड़ 36 बनता है तथा इन्हीं 36 गुणों के आधार पर कुंडलियों का मिलान सुनिश्चित किया जाता है। 36 में से जितने अधिक गुण मिलें, उतना ही अच्छा कुंडलियों का मिलान माना जाता है। 36 गुण मिलने पर उत्तम, 36 से 30 तक बहुत बढ़िया, 30 से 25 तक बढ़िया तथा 25 से 20 तक सामान्य मिलान माना जाता है। 20 से कम गुण मिलने पर कुंडलियों का मिलान शुभ नहीं माना जाता है।
भारतीय ज्योतिष में कुंडली मिलान के लिए प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की विधि में मिलाए जाने वाले अष्टकूटों में नाड़ी और भकूट को सबसे अधिक गुण प्रदान किए जाते हैं। नाड़ी को 8 तथा भकूट को 7 गुण प्रदान किए जाते हैं। इस तरह अष्टकूटों के इस मिलान में प्रदान किए जाने वाले 36 गुणों में से 15 गुण केवल इन दो कूटों अर्थात नाड़ी और भकूट के हिस्से में ही आ जाते हैं। इसी से गुण मिलान की विधि में इन दोनों के महत्व का पता चल जाता है। नाड़ी और भकूट दोनों को ही या तो सारे के सारे या फिर शून्य गुण प्रदान किए जाते हैं, अर्थात नाड़ी को 8 या 0 तथा भकूट को 7 या 0 अंक प्रदान किए जाते हैं। नाड़ी को 0 अंक मिलने की स्थिति में वर-वधू की कुंडलियों में नाड़ी दोष तथा भकूट को 0 अंक मिलने की स्थिति में वर-वधू की कुंडलियों में भकूट दोष बन जाता है। भारतीय ज्योतिष में प्रचलित धारणा के अनुसार इन दोनों दोषों को अत्यंत हानिकारक माना जाता है तथा ये दोनों दोष वर-वधू के वैवाहिक जीवन में अनेक तरह के कष्टों का कारण बन सकते हैं और वर-वधू में से किसी एक या दोनों की मृत्यु का कारण तक बन सकते हैं। तो आइए आज भारतीय ज्योतिष की एक प्रबल धारणा के अनुसार अति महत्वपूरण माने जाने वाले इन दोनों दोषों के बारे में चर्चा करते हैं।
वर्ण सामाजिक मूल्यों की अनुकूलता १ अंक
वैश्य सामांजस्य स्तर पर अनुकूलता २ अंक
तारा / दिना व्यक्तिगत नियति की अनुकूलता ३ अंक
योनि यौन अनुकूलता ४ अंक
गृह /मैत्री वैवाहिक सद्भाव की अनुकूलता ५ अंक
गण व्यक्तिगत लक्षण की अनुकूलता ६ अंक
भकूट सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति की अनुकूलता ७ अंक
नाड़ी संतति पैदा करने की अनुकूलता ८ अंक
इस प्रणाली का पालन करके किए जाने वाले जोड़े मेल वैज्ञानिक रुप से सही होते हैं। गणेशजी एक उदाहरण देना चाहते हैं।
कुंडली में नाड़ी दोष संतान के जन्म में कठिनाईयों को दिखाता है। यदि गुण मिलाप के समय मध्य नाड़ी दोष का संकेत मिलता है, तो युगल के संतान सुख से वंचित रखने की संभावना काफी मजबूत होती है। कारण नाड़ी किसी व्यक्ति की प्रकृति (मूल तत्व ) को इंगित करता है। ये प्रकृति वात, पित्त और कफ हैं। यदि दोनों भागीदार एक ही प्रकृति में जन्म लेते हैं तो नाड़ीके तहत प्राप्त अंक शून्य होगा। विवाह का मकसद एक दूसरे के साथ सुखी जीवन ही नहीं है, बल्कि परिवार का विस्तार भी है। यदि युगल संतानसुख से वंचित रहते हैं तो वैवाहिक जीवन में कुछ वर्षों के पश्चात उदासी आ सकती है तथा युगल को बुढ़ापे में सहारे के लिए भी कोई नहीं होता।
नाड़ी के प्रकार तथा उनके अर्थ निम्न प्रकार से हैं-
आद्य नाड़ी वात वायु स्वभाव सूखा तथा ठंड़ा
मध्य नाड़ी पित्त पित्त स्वभाव उच्चतम मेटाबोलिक दर
अंत नाड़ी कफ सुस्त स्वभाव तैलिय तथा विनित
मध्य नाड़ी दोष इन तीनों में से सबसे मजबूत माना जाता है, जैसा कि पित्त प्रकृति वीर्य की गुणवत्ता का नाश करता है। इस कारण से सफल गर्भाधान की संभावना काफी कम हो जाती है, अधिकांशतः इसलिए कि शुक्राणु की आयु ३ से ५ दिन की होती है और पित्त प्रकृति का स्वभाव इसका नाश करने का है। फलतः मध्य नाड़ी दोष वाले युगल की प्रजनन क्षमता काफी कम होती है।
आइए सबसे पहले यह जान लें कि नाड़ी और भकूट दोष वास्तव में होते क्या हैं तथा ये दोनों दोष बनते कैसे हैं। नाड़ी दोष से शुरू करते हुए आइए सबसे पहले देखें कि नाड़ी नाम का यह कूट वास्तव में होता क्या है। नाड़ी तीन प्रकार की होती है, आदि नाड़ी, मध्या नाड़ी तथा अंत नाड़ी। प्रत्येक व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा की किसी नक्षत्र विशेष में उपस्थिति से उस व्यक्ति की नाड़ी का पता चलता है।
नक्षत्र संख्या में कुल 27 होते हैं तथा इनमें से किन्हीं 9 विशेष नक्षत्रों में चन्द्रमा के स्थित होने से कुंडली धारक की कोई एक नाड़ी होती है। उदाहरण के लिए :
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की आदि नाड़ी होती है :
अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तर फाल्गुणी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा तथा पूर्व भाद्रपद।
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की मध्य नाड़ी होती है :
भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्व फाल्गुणी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा तथा उत्तर भाद्रपद।
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की अंत नाड़ी होती है :
कृत्तिका, रोहिणी, श्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण तथा रेवती।
गुण मिलान करते समय यदि वर और वधू की नाड़ी अलग-अलग हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 में से 8 अंक प्राप्त होते हैं, जैसे कि वर की आदि नाड़ी तथा वधू की नाड़ी मध्या अथवा अंत। किन्तु यदि वर और वधू की नाड़ी एक ही हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 में से 0 अंक प्राप्त होते हैं तथा इसे नाड़ी दोष का नाम दिया जाता है। नाड़ी दोष की प्रचलित धारणा के अनुसार वर-वधू दोनों की नाड़ी आदि होने की स्थिति में तलाक या अलगाव की प्रबल संभावना बनती है तथा वर-वधू दोनों की नाड़ी मध्य या अंत होने से वर-वधू में से किसी एक या दोनों की मृत्यु की प्रबल संभावना बनती है। नाड़ी दोष को निम्नलिखित स्थितियों में निरस्त माना जाता है :
यदि वर-वधू दोनों का जन्म एक ही नक्षत्र के अलग-अलग चरणों में हुआ हो तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के बावजूद भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
यदि वर-वधू दोनों की जन्म राशि एक ही हो किन्तु नक्षत्र अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के बावजूद भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
यदि वर-वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक ही हो किन्तु जन्म राशियां अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के बावजूद भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
नाड़ी दोष के बारे में विस्तारपूर्वक जानने के बाद आइए अब देखें कि भकूट दोष क्या होता है। यदि वर-वधू की कुंडलियों में चन्द्रमा परस्पर 6-8, 9-5 या 12-2 राशियों में स्थित हों तो भकूट मिलान के 0 अंक माने जाते हैं तथा इसे भकूट दोष माना जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि वर की जन्म कुंडली में चन्द्रमा मेष राशि में स्थित हैं, अब :
यदि कन्या की जन्म कुंडली में चन्द्रमा कन्या राशि में स्थित हैं तो इसे षड़-अष्टक भकूट दोष का नाम दिया जाता है क्योंकि मेष राशि से गिनती करने पर कन्या राशि छठे तथा कन्या राशि से गिनती करने पर मेष राशि आठवें स्थान पर आती है।
यदि कन्या की जन्म कुंडली में चन्द्रमा धनु राशि में स्थित हैं तो इसे नवम-पंचम भकूट दोष का नाम दिया जाता है क्योंकि मेष राशि से गिनती करने पर धनु राशि नवम तथा धनु राशि से गिनती करने पर मेष राशि पांचवे स्थान पर आती है।
यदि कन्या की जन्म कुंडली में चन्द्रमा मीन राशि में स्थित हैं तो इसे द्वादश-दो भकूट दोष का नाम दिया जाता है क्योंकि मेष राशि से गिनती करने पर मीन राशि बारहवें तथा मीन राशि से गिनती करने पर मेष राशि दूसरे स्थान पर आती है।
भकूट दोष की प्रचलित धारणा के अनुसार षड़-अष्टक भकूट दोष होने से वर-वधू में से एक की मृत्यु हो जाती है, नवम-पंचम भकूट दोष होने से दोनों को संतान पैदा करने में मुश्किल होती है या फिर सतान होती ही नहीं तथा द्वादश-दो भकूट दोष होने से वर-वधू को दरिद्रता का सामना करना पड़ता है। भकूट दोष को निम्नलिखित स्थितियों में निरस्त माना जाता है :
यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों का स्वामी एक ही ग्रह हो तो भकूट दोष खत्म हो जाता है। जैसे कि मेष-वृश्चिक तथा वृष-तुला राशियों के एक दूसरे से छठे-आठवें स्थान पर होने के बावजूद भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि मेष-वृश्चिक दोनों राशियों के स्वामी मंगल हैं तथा वृष-तुला दोनों राशियों के स्वामी शुक्र हैं। इसी प्रकार मकर-कुंभ राशियों के एक दूसरे से 12-2 स्थानों पर होने के बावजूद भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि इन दोनों राशियों के स्वामी शनि हैं।
यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों के स्वामी आपस में मित्र हैं तो भी भकूट दोष खत्म हो जाता है जैसे कि मीन-मेष तथा मेष-धनु में भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि इन दोनों ही उदाहरणों में राशियों के स्वामी गुरू तथा मंगल हैं जो कि आपसे में मित्र माने जाते हैं।
इसके अतिरिक्त अगर दोनो कुंडलियों में नाड़ी दोष न बनता हो, तो भकूट दोष के बनने के बावजूद भी इसका असर कम माना जाता है।
किन्तु इन दोषों के द्वारा बतायी गईं हानियां व्यवहारिक रूप से इतने बड़े पैमाने पर देखने में नहीं आतीं और न ही यह धारणाएं तर्कसंगत प्रतीत होती हैं। उदाहरण के लिए नाड़ी दोष लगभग 33 प्रतिशत कुंडलियों के मिलान में देखने में आता है कयोंकि कुल तीन नाड़ियों में से वर और वधू की नाड़ी एक होने की सभावना लगभग 33 प्रतिशत बनती है। इसी प्रकार की गणना भकूट दोष के विषय में भी करके यह तथ्य सामने आता है कि कुंडली मिलान की लगभग 50 से 60 प्रतिशत उदाहरणों में नाड़ी या भकूट दोष दोनों में से कोई एक अथवा दोनों ही उपस्थित होते हैं। और क्योंकि बिना कुंडली मिलाए विवाह करने वाले लोगों में से 50-60 प्रतिशत लोग ईन दोनों दोषों के कारण होने वाले भारी नुकसान नहीं उठा रहे इसलिए इन दोनों दोषों से होने वाली हानियों तथा इन दोनों दोषों की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
नाड़ी दोष तथा भकूट दोष अपने आप में दो लोगों के वैवाहिक जीवन में उपर बताई गईं विपत्तियां लाने में सक्षम नहीं हैं तथा इन दोषों और इनके परिणामों को कुंडली मिलान के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के साथ ही जोड़ कर देखना चाहिए। नाड़ी दोष तथा भकूट दोष से होने वाले बुरे प्रभावों को ज्योतिष के विशेष उपायों से काफी हद तक कम किया जा सकता है।
ज्योतिष को एक विज्ञान के रुप में, समय से काफी आगे, व्यक्ति के तारीख, समय तथा जन्म स्थान के आधार पर, सही वैज्ञानिक व्याख्या के साथ सभी कुछ का सही विवरण बताता है। लेकिन, क्या युगल एक दूसरे के लिए भाग्यशाली साबित होगें ?विवाह के बाद क्या युगल वित्तिय प्रगति कर सकेगें ? इस तरह के सवालों का जवाब भी विस्तृत कुंडली के मिलान करके आसानी से पाया जा सकता है।यहां अन्य कई ज्योतिषिय मापदंड भी हैं जो कुंडली मिलान के समय ध्यान में रखा जाता है। इसमें समग्र तालिका की अवधारणा भी शामिल है, जो बताता है कि दो लोग एक दूसरे के साथ सुखी रहेगें हैं या नहीं। उनका जीवन किस तरह से बितेगा, कोई एक चमकेगा तथा दूसरे के सकारात्मक गुणों से तर हो जाएगा ? ये सारे कारण हैं कि विवाह को तय करने से पहले दूल्हा दुल्हन के कुंडली का मिलान किया जाता है।
इस संदर्भ में पुरूष के लिए शुक्र और स्त्री के लिए मंगल का विश्लेषण आवश्यक है। शुक्र प्रणय और आकर्षण का प्रेरक है। इससे सौंदर्य, भावनाएं, विलासिता का भी ज्ञान होता है। पंचम भाव स्थित शुक्र जातक को प्रणय की उद्दाम अनुभूतियों से ओत-प्रोत करता है। मंगल साहस का कारक है। मंगल जितना प्रभुत्वशाली होगा, जातक उसी अनुपात में साहसी और धैर्यशील होगा। यदि व्यक्ति मंगल कमजोर हो तो जातक प्रेमानुभूति को अभिव्यक्त नहीं कर पाता। वह दुविधा, संशय और हिचकिचाहट में रहता है।
चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। चंद्रमा का मानसिक स्थिति, स्वभाव, इच्छा, भावना आदि पर प्रभुत्व है। प्रेम मन से किया जाता है। इसलिए चंद्र की स्थिति भी प्रेम विवाह में अनुकूलता प्रदान करती है।
शुक्र आकर्षण का कारक है। यदि शुक्र जातक के प्रबल होता है तो प्रेम विवाह हो जाता है और यदि शुक्र कमजोर होता है तो विवाह नहीं हो पाता है।
संक्षेप में कहा जाए तो कुंडली मिलान एक सफल तथा सद्भावपूर्ण विवाहित जीवन की कुंजी है।
दूसरी बात, वो ये कि आजकल जन्मकुंडली मिलान वगैरह के लिए भी कम्पयूटर का ही सहारा लिया जाने लगा है. खैर इसमें कोई बुराई नहीं बल्कि ये तो अच्छी बात है क्यों कि कम्पयूटर के इस्तेमाल से गलती की कैसी भी कोई संभावना नहीं रहती…… परन्तु अन्तिम निर्णय तो विद्वान ज्योतिषी को ही करना होता है. कम्पयूटर का कार्य है सिर्फ गणित(Calculations) करना. जन्मकुंडली देखना, उसके बारे में अन्तिम रूप से सारांशत: व्यक्तिगत रूचि लेकर किसी निर्णय पर पहुँचने का कार्य ज्योतिष के ज्ञाता का है. कम्पयूटर मानव कार्यों का एक सर्वोतम सहायक जरूर है, मानव नहीं…..इसलिए कम्पयूटर का उपयोग करें तो सिर्फ जन्मकुंडली निर्माण हेतु….न कि कम्पयूटर द्वारा दर्शाई गई गुण मिलान संख्या को आधार मानकर कोई अंतिम निर्णय लिया जाए….
शुभ और अशुभ भकूट गुणों का विचार/निर्णय
भकूट दोष की प्रचलित धारणा के अनुसार षड़-अष्टक भकूट दोष होने से वर-वधू में से एक की मृत्यु हो जाती है, नवम-पंचम भकूट दोष होने से दोनों को संतान पैदा करने में मुश्किल होती है या फिर सतान होती ही नहीं तथा द्वादश-दो भकूट दोष होने से वर-वधू को दरिद्रता का सामना करना पड़ता है। भकूट दोष को निम्नलिखित स्थितियों में निरस्त माना जाता है :
यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों का स्वामी एक ही ग्रह हो तो भकूट दोष खत्म हो जाता है। जैसे कि मेष-वृश्चिक तथा वृष-तुला राशियों के एक दूसरे से छठे-आठवें स्थान पर होने के बावजूद भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि मेष-वृश्चिक दोनों राशियों के स्वामी मंगल हैं तथा वृष-तुला दोनों राशियों के स्वामी शुक्र हैं। इसी प्रकार मकर-कुंभ राशियों के एक दूसरे से 12-2 स्थानों पर होने के बावजूद भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि इन दोनों राशियों के स्वामी शनि हैं।
यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों के स्वामी आपस में मित्र हैं तो भी भकूट दोष खत्म हो जाता है जैसे कि मीन-मेष तथा मेष-धनु में भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि इन दोनों ही उदाहरणों में राशियों के स्वामी गुरू तथा मंगल हैं जो कि आपसे में मित्र माने जाते हैं।इसके अतिरिक्त अगर दोनो कुंडलियों में नाड़ी दोष न बनता हो, तो भकूट दोष के बनने के बावजूद भी इसका असर कम माना जाता है। किन्तु इन दोषों के द्वारा बतायी गईं हानियां व्यवहारिक रूप से इतने बड़े पैमाने पर देखने में नहीं आतीं और न ही यह धारणाएं तर्कसंगत प्रतीत होती हैं। उदाहरण के लिए नाड़ी दोष लगभग 33 प्रतिशत कुंडलियों के मिलान में देखने में आता है कयोंकि कुल तीन नाड़ियों में से वर और वधू की नाड़ी एक होने की सभावना लगभग 33 प्रतिशत बनती है। इसी प्रकार की गणना भकूट दोष के विषय में भी करके यह तथ्य सामने आता है कि कुंडली मिलान की लगभग 50 से 60 प्रतिशत उदाहरणों में नाड़ी या भकूट दोष दोनों में से कोई एक अथवा दोनों ही उपस्थित होते हैं। और क्योंकि बिना कुंडली मिलाए विवाह करने वाले लोगों में से 50-60 प्रतिशत लोग ईन दोनों दोषों के कारण होने वाले भारी नुकसान नहीं उठा रहे इसलिए इन दोनों दोषों से होने वाली हानियों तथा इन दोनों दोषों की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
मेरे अपने अनुभव के अनुसार नाड़ी दोष तथा भकूट दोष अपने आप में दो लोगों के वैवाहिक जीवन में उपर बताई गईं विपत्तियां लाने में सक्षम नहीं हैं तथा इन दोषों और इनके परिणामों को कुंडली मिलान के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के साथ ही जोड़ कर देखना चाहिए।
भकूट का तात्पर्य वर एवं वधू की राशियों के अन्तर से है। यह 6 प्रकार का होता है जो क्रमश: इस प्रकार है:-
कुण्डली में गुण मिलान के लिए अष्टकूट से विचार किया जाता है इन अष्टकूटों में एक है भकूट   भकूट अष्टकूटो में 7 वां है,भकूट निम्न प्रकार के होते हैं.
1. प्रथम सप्तक 2. द्वितीय द्वादश 3. तृतीय एकादश 4. चतुर्थ दशम 5. पंचम नवम 6. षडष्टक
ज्योतिष के अनुसार निम्न भकूट अशुभ   हैं
द्विर्द्वादश
नवपंचक   एवं
षडष्टक  
शेष निम्न तीन भकूट शुभ   हैं. इनके रहने पर भकूट दोष   माना जाता है
प्रथम-सप्तक
तृतीय-एकादश  चतुर्थ-दशम  
भकूट जानने के लिए वर की राशि से कन्या की राशि तक तथा कन्या की राशि से वर की राशि तक गणना करनी चाहिए। यदि दोनों की राशि आपस में एक दूसरे से द्वितीय एवं द्वादश भाव में पड़ती हो तो द्विर्द्वादश भकूट होता है। वर कन्या की राशि परस्पर पांचवी व नवी में पड़ती है तो नव-पंचम भकूट होता है, इस क्रम में अगर वर-कन्या की राशियां परस्पर छठे एवं आठवें स्थान पर पड़ती हों तो षडष्टक भकूट बनता है। नक्षत्र मेलापक में द्विर्द्वादश, नव-पंचक एवं षडष्टक ये तीनों भकूट अशुभ माने गये हैं। द्विर्द्वादश को अशुभ की इसलिए कहा गया है क्योंकि द्सरा स्थान(12th place) धन का होता है और बारहवां स्थान व्यय का होता है, इस स्थिति के होने पर अगर शादी की जाती है तो पारिवारिक जीवन में अधिक खर्च होता है।
नवपंचक   भकूट को अशुभ कहने का कारण यह है कि जब राशियां परस्पर पांचवें तथा नवमें स्थान   पर होती हैं तो धार्मिक भावना, तप-त्याग, दार्शनिक दृष्टि तथा अहं की भावना जागृत होती है जो दाम्पत्य जीवन में विरक्ति तथा संतान के सम्बन्ध में हानि देती है। षडष्टक भकूट को महादोष की श्रेणी में रखा गया है क्योंकि कुण्डली में 6ठां एवं आठवां स्थान  मृत्यु का माना जाता हैं। इस स्थिति के होने पर अगर शादी की जाती है तब दाम्पत्य जीवन में मतभेद, विवाद एवं कलह ही स्थिति बनी रहती है जिसके परिणामस्वरूप अलगाव, हत्या एवं आत्महत्या की घटनाएं भी घटित होती हैं। मेलापक के अनुसार षडष्टक में वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।
शेष तीन भकूट- प्रथम-सप्तम, तृतीय एकादश तथा चतुर्थ -दशम शुभ होते हैं। शुभ भकूट का फल निम्न हैं:-
मेलापक में राशि अगर प्रथम-सप्तम हो तो शादी के पश्चात पति पत्नी दोनों का जीवन सुखमय होता है और उन्हे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।
वर कन्या का परस्पर तृतीय-एकादश भकूट हों तो उनकी आर्थिक अच्छी रहती है एवं परिवार में समृद्धि रहती है,
जब वर कन्या का परस्पर चतुर्थ-दशम भकूट हो तो शादी के बाद पति पत्नी के बीच आपसी लगाव एवं प्रेम बना रहता है।
इन स्थितियों में भकूट दोष नहीं लगता है:—–
1. यदि वर-वधू दोनों के राशीश आपस में मित्र हों।
2.
यदि दोनों के राशीश एक हों।
3.
यदि दोनों के नवमांशेश आपस में मित्र हों।
4.
यदि दोनों के नवमांशेश एक हो।
नाड़ी दोषइस प्रकार मेलापक में नाडी के माध्यम से भावी दम्पति की मानसिकता, मनोदशा का मूल्यांकन किया जाता है । वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष एवं नाडी दोष - इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है । यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6+7+8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1+2+3+4+5=15) 15 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । अकेली नाडी के 8 गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक हैं । इसलिए मेलापक में नाडी दोष एक महादोष माना गया है ।
कुंडली मिलान के लिए प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की विधि में मिलाए जाने वाले अष्टकूटों में नाड़ी और भकूट को सबसे अधिक गुण प्रदान किए जाते हैं। नाड़ी को 8 तथा भकूट को 7 गुण प्रदान किए जाते हैं। इस तरह अष्टकूटों के इस मिलान में प्रदान किए जाने वाले 36 गुणों में से 15 गुण केवल इन दो कूटों अर्थात नाड़ी और भकूट के हिस्से में ही आ जाते हैं। इसी से गुण मिलान की विधि में इन दोनों के महत्व का पता चल जाता है। नाड़ी और भकूट दोनों को ही या तो सारे के सारे या फिर शून्य गुण प्रदान किए जाते हैं, अर्थात नाड़ी को 8 या 0 तथा भकूट को 7 या 0 अंक प्रदान किए जाते हैं। नाड़ी को 0 अंक मिलने की स्थिति में वर-वधू की कुंडलियों में नाड़ी दोष तथा भकूट को 0 अंक मिलने की स्थिति में वर-वधू की कुंडलियों में भकूट दोष बन जाता है। भारतीय ज्योतिष में प्रचलित धारणा के अनुसार इन दोनों दोषों को अत्यंत हानिकारक माना जाता है तथा ये दोनों दोष वर-वधू के वैवाहिक जीवन में अनेक तरह के कष्टों का कारण बन सकते हैं और वर-वधू में से किसी एक या दोनों की मृत्यु का कारण तक बन सकते हैं। तो आइए आज भारतीय ज्योतिष की एक प्रबल धारणा के अनुसार अति महत्वपूरण माने जाने वाले इन दोनों दोषों के बारे में चर्चा करते हैं।
आइए सबसे पहले यह जान लें कि नाड़ी और भकूट दोष वास्तव में होते क्या हैं तथा ये दोनों दोष बनते कैसे हैं। नाड़ी दोष से शुरू करते हुए आइए सबसे पहले देखें कि नाड़ी नाम का यह कूट वास्तव में होता क्या है। नाड़ी तीन प्रकार की होती है, आदि नाड़ी, मध्या नाड़ी तथा अंत नाड़ी। प्रत्येक व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा की किसी नक्षत्र विशेष में उपस्थिति से उस व्यक्ति की नाड़ी का पता चलता है। नक्षत्र संख्या में कुल 27 होते हैं तथा इनमें से किन्हीं 9 विशेष नक्षत्रों में चन्द्रमा के स्थित होने से कुंडली धारक की कोई एक नाड़ी होती है। उदाहरण के लिए :
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की आदि नाड़ी होती है :
अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तर फाल्गुणी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा तथा पूर्व भाद्रपद।
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की मध्य नाड़ी होती है :
भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्व फाल्गुणी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा तथा उत्तर भाद्रपद।
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की अंत नाड़ी होती है :
कृत्तिका, रोहिणी, श्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण तथा रेवती।
गुण मिलान करते समय यदि वर और वधू की नाड़ी अलग-अलग हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 में से 8 अंक प्राप्त होते हैं, जैसे कि वर की आदि नाड़ी तथा वधू की नाड़ी मध्या अथवा अंत। किन्तु यदि वर और वधू की नाड़ी एक ही हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 में से 0 अंक प्राप्त होते हैं तथा इसे नाड़ी दोष का नाम दिया जाता है। नाड़ी दोष की प्रचलित धारणा के अनुसार वर-वधू दोनों की नाड़ी आदि होने की स्थिति में तलाक या अलगाव की प्रबल संभावना बनती है तथा वर-वधू दोनों की नाड़ी मध्य या अंत होने से वर-वधू में से किसी एक या दोनों की मृत्यु की प्रबल संभावना बनती है। नाड़ी दोष को निम्नलिखित स्थितियों में निरस्त माना जाता है :
यदि वर-वधू दोनों का जन्म एक ही नक्षत्र के अलग-अलग चरणों में हुआ हो तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के बावजूद भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
यदि वर-वधू दोनों की जन्म राशि एक ही हो किन्तु नक्षत्र अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के बावजूद भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
यदि वर-वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक ही हो किन्तु जन्म राशियां अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के बावजूद भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
नाड़ी दोष के बारे में विस्तारपूर्वक जानने के बाद आइए अब देखें कि भकूट दोष क्या होता है। यदि वर-वधू की कुंडलियों में चन्द्रमा परस्पर 6-8, 9-5 या 12-2 राशियों में स्थित हों तो भकूट मिलान के 0 अंक माने जाते हैं तथा इसे भकूट दोष माना जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि वर की जन्म कुंडली में चन्द्रमा मेष राशि में स्थित हैं, अब :
यदि कन्या की जन्म कुंडली में चन्द्रमा कन्या राशि में स्थित हैं तो इसे षड़-अष्टक भकूट दोष का नाम दिया जाता है क्योंकि मेष राशि से गिनती करने पर कन्या राशि छठे तथा कन्या राशि से गिनती करने पर मेष राशि आठवें स्थान पर आती है।
यदि कन्या की जन्म कुंडली में चन्द्रमा धनु राशि में स्थित हैं तो इसे नवम-पंचम भकूट दोष का नाम दिया जाता है क्योंकि मेष राशि से गिनती करने पर धनु राशि नवम तथा धनु राशि से गिनती करने पर मेष राशि पांचवे स्थान पर आती है।
यदि कन्या की जन्म कुंडली में चन्द्रमा मीन राशि में स्थित हैं तो इसे द्वादश-दो भकूट दोष का नाम दिया जाता है क्योंकि मेष राशि से गिनती करने पर मीन राशि बारहवें तथा मीन राशि से गिनती करने पर मेष राशि दूसरे स्थान पर आती है।
कुंडली मिलान के लिए गुण मिलान की विधि —-
एक अच्छे ज्योतिषि को यह देखना चाहिए कि क्या वर-वधू दोनों की कुंडलियों में सुखमय वैवाहिक जीवन के लक्ष्ण विद्यमान हैं या नहीं। उदाहरण के लिए अगर दोनों में से किसी एक कुंडली मे तलाक या वैध्वय का दोष विद्यमान है जो कि मांगलिक दोष, पित्र दोष या काल सर्प दोष जैसे किसी दोष की उपस्थिति के कारण बनता हो, तो बहुत अधिक संख्या में गुण मिलने के बावज़ूद भी कुंडलियों का मिलान पूरी तरह से अनुचित हो सकता है। इसके पश्चात वर तथा वधू दोनों की कुंडलियों में आयु की स्थिति, कमाने वाले पक्ष की भविष्य में आर्थिक सुदृढ़ता, दोनों कुंडलियों में संतान उत्पत्ति के योग, दोनों पक्षों के अच्छे स्वास्थय के योग तथा दोनों पक्षों का परस्पर शारीरिक तथा मानसिक सामंजस्य देखना चाहिए। उपरोक्त्त विष्यों पर विस्तृत विचार किए बिना कुंडलियों का मिलान सुनिश्चित करना मेरे विचार से सर्वथा अनुचित है। इस लिए कुंडलियों के मिलान में दोनों कुंडलियों का सम्पूर्ण निरीक्षण करना अति अनिवार्य है तथा सिर्फ गुण मिलान के आधार पर कुंडलियों का मिलान सुनिश्चित करने के परिणाम दुष्कर हो सकते हैं।
अगर 28-30 गुण मिलने के बाद भी तलाक, मुकद्दमें तथा वैधव्य जैसी परिस्थितियां देखने को मिलती हैं तो इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि गुण मिलान की प्रचलित विधि सुखी वैवाहिक जीवन बताने के लिए अपने आप में न तो पूर्ण है तथा न ही सक्षम। इसलिए इस विधि को कुंडली मिलान की विधि का एक हिस्सा मानना चाहिए न कि अपने आप में एक सम्पूर्ण विधि।
मैने अपनी ज्योतिष की प्रैक्टिस के दौरान कुंडली मिलान के ऐसे बहुत से केस देखे हैं जिनमें सिर्फ गुण मिलान की विधि से ही 25 से अधिक गुण मिलने के कारण वर-वधू की शादी करवा दी गई तथा कुंडली मिलान के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया गया जिसके परिणाम स्वरुप इनमें से बहुत से केसों में शादी के बाद पति पत्नि में बहुत तनाव रहा तथा कुछ केसों में तो तलाक और मुकद्दमें भी देखने को मिले।
वर्ण दोष, वश्य दोष
भारतवर्ष में विवाह कार्यों के लिए की प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की विधि में प्रयोग होने वाले अष्टकूटों में से वर्ण तथा वश्य नामक कूटों को क्रमश: 1 तथा 2 अंक प्रदान किए जाते हैं तथा इन कूटों का गुण मिलान की विधि में विशेष महत्व है। नए पाठकों की सुविधा के लिए मैं यहां पर गुण मिलान की इस विधि का संक्षेप में वर्णन कर रहा हूं। गुण मिलान की प्रक्रिया में आठ कूटों का मिलान किया जाता है जिसके कारण इसे अष्टकूट मिलान भी कहा जाता है तथा ये आठ कूट हैं, वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी तथा इन सभी कूटों को वर तथा वधू की कुंडलियों से मिलाने के पश्चात अंक दिये जाते हैं तथा इन कूटों को दिये जाने वाले अधिकतम अंक क्रमश: 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 तथा आठ हैं जिसका अर्थ है कि वर्ण मिलान के लिए अधिकतम अंक 1 है तथा नाड़ी मिलान के लिए अधिकतम अंक 8 हैं। इन सभी कूटों में से अधिकतम अंक मिलने की स्थिति में कुल अंक 36 हो जाते हैं जिन्हें कुल गुण भी कहा जाता है तथा जो गुण मिलान की विधि के द्वारा प्रदान किये जाने वाले अधिकतम गुण अथवा अंक हैं। इनमें से प्रत्येक कूट के मिलान को न्यूनतम 0 अंक प्रदान किया जा सकता है जिस स्थिति में इस कूट से संबंधित दोष माना जाता है जैसे कि नाड़ी मिलान को 0 अंक मिलने की स्थिति में नाड़ी दोष, भकूट मिलान को 0 अंक मिलने की स्थिति में भकूट दोष तथा वर्ण अथवा वश्य मिलान को 0 अंक मिलने की स्थिति में वर्ण तथा वश्य दोष आदि। वर्ण तथा वश्य को गुण मिलान की विधि में महत्वपूर्ण माना जाता है जिसके चलते इनके मिलान को भी आवश्यक समझा जाता है। आज के इस लेख में हम वर्ण तथा वश्य मिलान, वर्ण दोष तथा वश्य दोष और वर्ण तथा वश्य दोष से संबंधित अशुभ फलों तथा उनकी वास्तविकता और व्यवहारिकता के बारे में चर्चा करेंगे।

            
आइए पहले देख लें कि वर्ण और वश्य नामक यह कूट होते क्या हैं। वर्ण के बारे में पहले चर्चा करें तो वैदिक ज्योतिष 12 राशियों में से प्रत्येक राशि को एक वर्ण प्रदान करता है तथा कुल 4 वर्णो में इन 12 राशियों को समान रूप से विभाजित किया गया है जिसके कारण प्रत्येक वर्ण से संबंधित 3 राशियां होतीं हैं जो इस प्रकार हैं।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार कर्क, वृश्चिक तथा मीन को ब्राह्मण वर्ण प्रदान किया गया है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार मेष, सिंह तथा धनु को क्षत्रिय वर्ण प्रदान किया गया है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार वृष, कन्या तथा मकर को वैश्य वर्ण प्रदान किया गया है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार मिथुन, तुला तथा कुंभ को शूद्र वर्ण प्रदान किया गया है।

                   
इन सभी वर्णों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इस क्रम से श्रेष्ठ से निम्न माना जाता है जिससे ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ तथा शूद्र सबसे निम्न माना जाता है। गुण मिलान के नियम के अनुसार यदि वर की चन्द्र राशि का वर्ण वधू की चन्द्र राशि के वर्ण से श्रेष्ठ अथवा समान हो तो वर्ण मिलान का 1 में से 1 अंक प्रदान किया जाता है तथा यदि वर की चन्द्र राशि का वर्ण वधू की चन्द्र राशि के वर्ण से निम्न हो तो वर्ण मिलान को अशुभ मानते हुए 1 में से 0 अंक प्रदान किया जाता है जिसके कारण वर्ण दोष बन जाता है जिसके कारण ऐसे वर वधू को वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त नहीं हो पाता जिसके पीछे वैदिक ज्योतिषियों की यह धारणा है कि वर का वर्ण वधू से श्रेष्ठ होने की स्थिति में ही वह अपनी वधू को नियंत्रित करने में तथा उसका मार्गदर्शन करनें में सफल हो पाता है। वर्ण मिलान के कुल 16 संयोग बनते हैं जिनमे से 6 संयोग 0 अंक प्राप्त करने के कारण वर्ण दोष बनाते हैं।

 
वश्य नामक कूट के बारे में चर्चा करें तो, 12 राशियों में से प्रत्येक राशि को वर्ण की भांति ही एक वश्य प्रदान किया गया है तथा इन वश्यों के नाम हैं द्विपद, चतुष्पद, कीट, वनचर तथा जलचर और इन वश्यों को भी वर्णों की भांति ही श्रेष्ठता से निम्नता का क्रम दिया गया है। गुण मिलान के नियम के अनुसार यदि वर की चन्द्र राशि का वश्य वधू की चन्द्र राशि के वश्य से श्रेष्ठ है तो वश्य मिलान के 2 में से 2 अंक प्रदान किये जाते हैं तथा वर का वश्य वधू के वश्य से निम्न होने की स्थिति में ये अंक उसी अनुपात में कम होते जाते हैं जिस अनुपात में वर का वश्य कन्या के वश्य से निम्न होता जाता है तथा इस क्रम में वर का वश्य कन्या के वश्य से बहुत निम्न तथा निम्नतम होने की स्थिति में वश्य मिलान के लिए क्रमश आधा तथा 0 अंक प्रदान किया जाता है जिसके कारण वश्य दोष बन जाता है जिसके कारण ऐसे वर वधू के वैवाहिक जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएं आतीं हैं। वश्य मिलान के कुल संभावित 25 संयोगों में से 6 संयोग वश्य दोष बनाते हैं।
वर्ण दोष तथा वश्य दोष से प्राप्त हुए आंकड़ों को देखने से यह पता चलता है कि कुंडली मिलान के लगभग 35% मामलों में वर्ण दोष बन जाता है तथा लगभग 25% मामलों में वश्य दोष बन जाता है जिसके चलते लगभग 60% विवाह तो वर्ण दोष तथा वश्य दोष के कारण ही संभव नहीं हो पायेंगे। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि वर्ण दोष तथा वश्य दोष कुंडली मिलान के समय बनने वाले अनेक दोषों में से केवल दो दोष हैं तथा कुंडली मिलान में बनने वाले अन्य कई दोषों जैसे कि नाड़ी दोष, भकूट दोष, काल सर्प दोष, मांगलिक दोष आदि में से प्रत्येक दोष भी अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार लगभग 30% से 50% कुंडली मिलान के मामलों में तलाक तथा वैध्वय जैसीं समस्याएं पैदा करने में पूरी तरह से सक्षम है। इन सभी दोषों को भी ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि संसार में होने वाला लगभग प्रत्येक विवाह ही तलाक अथवा वैध्वय जैसी समस्याओं का सामना करेगा क्योंकि अपनी प्रचलित परिभाषाओं के अनुसार इनमें से कोई एक अथवा एक से अधिक दोष लगभग प्रत्येक कुंडलीं मिलान के मामले में बन जाएगा। क्योंकि यह तथ्य वास्तविकता से बहुत परे है इसलिए यह मान लेना चाहिए कि वर्ण दोष तथा वश्य दोष तथा ऐसे अन्य दोष अपनी प्रचलित परिभाषाओं के अनुसार क्षति पहुंचाने में सक्षम नहीं हैं।
इसलिए कुंडली मिलान के किसी मामले में केवल वर्ण दोष अथवा वश्य दोष का उपस्थित होना अपने आप में ऐसे विवाह को तोड़ने में सक्षम नहीं है तथा ऐसा होने के लिए कुंडली में किसी ग्रह द्वारा बनाया गया कोई अन्य गंभीर दोष अवश्य होना चाहिए। मैने अपने ज्योतिष के कार्यकाल में हजारों कुंडलियों का मिलान किया है तथा यह देखा है कि केवल वर्ण दोष अथवा वश्य दोष के उपस्थित होने से ही विवाह में कोई गंभीर समस्याएं पैदा नहीं होतीं तथा ऐसे बहुत से विवाहित जोड़ों की कुंडलियां मेरे पास हैं जहां पर कुंडली मिलान के समय वर्ण दोष अथवा वश्य दोष बनता है किन्तु फिर भी ऐसे विवाह वर्षों से लगभग हर क्षेत्र में सफल हैं जिसका कारण यह है कि लगभग इन सभी मामलों में ही वर वधू की कुंडलियों में विवाह के शुभ फल बताने वाले कोई योग हैं जिनके कारण वर्ण दोष अथवा वश्य दोष का प्रभाव इन कुंडलियों से लगभग समाप्त हो गया है। इसलिए विवाह के लिए उपस्थित संभावित वर वधू को केवल वर्ण दोष अथवा वश्य दोष के बन जाने के कारण ही आशा नहीं छोड़ देनी चाहिए तथा अपनी कुंडलियों का गुण मिलान के अलावा अन्य विधियों से पूर्णतया मिलान करवाना चाहिए क्योंकि इन कुंडलियों के आपस में मिल जाने से वर्ण दोष तथा वश्य दोष अथवा गुण मिलान से बनने वाला ऐसा ही कोई अन्य दोष ऐसे विवाह को कोई विशेष हानि नहीं पहुंचा सकता। इसके पश्चात एक अन्य शुभ समाचार यह भी है कि कुंडली मिलान में बनने वाले वर्ण दोष तथा वश्य दोष का निवारण अधिकतर मामलों में ज्योतिष के उपायों से सफलतापूर्वक किया जा सकता है जो हमे इस दोष से न डरने का एक और कारण देता है। नाड़ी दोष अर्थात वियोग और संताप "?
---वैवाहिक जीवन -लोभ,अर्थ ,काम के बाद मोक्ष प्राप्ति से ही सही माना जाता है ।और इसके लिए पत्ति -पतनी का सहयोग अतिम घडी तक बना रहना चाहिए । ये संभव नाड़ी का मिलान सही होने से ही होता है ।
---------कुंडली मिलान का आठवाँ विचार नाड़ी विचार को जानते हैं ।
{1}-आदि नाडी -अश्विनी,आर्द्रा ,पुनर्वसु ,उत्तर फाल्गुनी ,हस्त ,ज्येष्ठा ,मूल ,शतभिषा और पूर्व भाद्रपद -ये 9-नक्षत्र को आदि नाडी कहते हैं ।
{2}-भरणी,मृगशिरा ,पुष्य ,पूर्व फाल्गुनी ,चित्रा ,अनुराधा ,पूर्वा षाधा ,धनिष्ठा और उत्तर भाद्रपद को मध्य नाडी कहते हैं ।
{3}-कृतिका,रोहिणी ,शलेषा ,मघा ,स्वाति ,विशाखा ,उत्तर षाढा श्रवण और रेवती को अन्त्य नाड़ी कहते हैं ।
प्रभाव ------किसी भी एक नाड़ी में वर -कन्या दोनों के नक्षत्र होने पर दाम्पत्य सुख अत्यंत भयावह हो जाता है ।दोनों में से किसी एक को शारीरिक अत्यंत पीड़ा होती है और वियोग हो जाता है ।
"निधनं मध्यम नाड्याम दाम्पत्योर्नैव पार्श्व योनाड्योह "
-----अर्थात -ज्योतिष प्रकाश -में इस वाक्य में मध्य नाडी होने पर दोनों दोनों {पति -पतनी}को बहुत कष्ट झेलने पड़ते हैं ।-तीनों नाड़ियों में दोष होने पर दाम्पत्य जीवन अडिग नहीं रहता है ।
"नाडी दोशोस्ति विप्राणां वर्ण दोषोस्ती भूभुजाम ।
वैश्यानां गण दोषः स्यात शुद्राणाम योनिदूश्नाम ।।
भाव -कुछ आचार्यों ने कहा -नाडी दोष केवल ब्राह्मणों को लगता है ।और वर्ण दोष क्षत्रियों को ही लगता है ।एवं गण दोष वैश्यों को ही लगता है तथा -योनी दोष दासों को ही लगता है ।
नोट -जब जीवन की घडी लम्बी न हो ,सुखद न हो ,मोक्ष प्राप्ति तक न पंहुंचे -अर्थात पति -पतनी साथ -साथ अंतिम पड़ाव तक न पँहुचे तो वैवाहिक सुख अधूरा रहता है इसलिए कुंडली मिलान नितांत आवश्यक है ।जिस प्रकार नरकों के वर्णन सुनकर नरकों में नहीं जाना चाहते हैं इसी प्रकार वैवाहिक जीवन सर्वगुण संपन्न हो कुंडली मिलान अनिवार्य समझें ।
नाडी दोष :- नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहे हो तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता अन्यता उनमे व्यभिचार का दोष पैदा होने की सभांवना रहती है । मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है । इस लिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमे परस्पर अंह के कारण सम्बंन्ध अच्छे बन पाते । उनमे विकर्षण कि सभांवना बनती है । परस्पर लडाईझगडे होकर तलाक की नौबत आ जाती है । विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है । गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है । अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी इस प्रकार की स्थिति मे प्रबल नाडी दोश होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखे । जिस प्रकार वात प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए वात नाडी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है अथवा कफ प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए कफ नाडी के चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाडी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मक ताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित किया जाता है । तात्पर्य यह है कि लडका-लडकी की एक समान नाडियाँ हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्यों कि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है । इसलिए मेलापक में आदि नाडी के साथ आदि नाडी का, मध्य नाडी के साथ मध्य का और अंत्य नाडी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है । जब कि लडका-लडकी की भिन्न भिन्न नाडी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का द्योतक है । यदि वर एवं कन्या कि नाड़ी अलग -अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है । यदि वर एवं कन्या दोनो का जन्म यदि एक ही नाड़ी मे हो तो नाड़ी दोष माना जाता है । सामान्य नाड़ी दोश होने पर किस प्रकार के उपाय दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने का प्रयास कर सकते है, आइएजाने ।
१- आदि नाड़ी - अश्विनी, आर्द्रा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पुर्वाभाद्रपद
२- मध्य नाड़ी - भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पुर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पुर्वाषाढा, धनिष्ठा, उत्तरासभाद्रपद
३- अन्त्य नाड़ी - कृतिका, रोहिणी, अश्लेशा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण, रेवती
आदि मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है लेकिन कुछ स्थानो पर चर्तुनाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्र भी प्रचलित है । लेकिन व्यावहारिक रुप से त्रिनाडी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पडता है । नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यो दिया गया है, इसके बारे मे जानकारी हेतु त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवष्यक है । आदि नाड़ी वात् स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित स्वभाव की मानी गई है । एवं मध्य नाड़ी पित प्रति एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की । यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माना जाता है । इसका प्रमुख कारण यही है कि वात् स्वभाव के वर का विवाह यदि वात स्वभाव की कन्या से हो तो उनमे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नही हाती । विवाह के पष्चात उत्पन्न संतान मे भी वात सम्भावना रहती है । इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है । अन्यथा उनमे व्याभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है । मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है । इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहम्के कारण सम्बंन्ध अच्छे नही बन पाते । उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है । परस्पर लडाई-झगडे होकर तलाक की नौबत आ जाती है । विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है । गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी गई है । इसलिए अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमे कामभाव की कमी पैदा होने लगती है । शान्त स्वभाव के कारण उनमे परस्पर सामञ्जस्य का अभाव रहता है । दाम्पत्य मे गलत फहमी होना भी स्वभाविक होती है । नाड़ी होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है । लेकिन नाडी दोष परिहार की स्थिति मे यदि कुण्डली मिलान उत्तम बना रहा है तो विवाह किया जा सकता है ।
नाड़ी दोष परिहार-
क) वर कन्या की एक राशि हो लेकिन जन्म नक्षत्र अलग-अलग हो या जन्म नक्षत्र एक ही हो परन्तु राशियां अलग हो तो नाड़ी नही होता है । यदि जन्म नक्षत्र एक ही हो लेकिन चरण भेद हो तो अति आवश्यकता अर्थात् सगाई हो गई हो, एक दुसरे को पंसद करते हों तब इस स्थिति मे विवाह किया जा सकता है ।
ख) विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवति, हस्त, स्वाति, आद्र्रा, पूर्वाभद्रपद इन 8 नक्षत्रो मे से किसी नक्षत्र मे वर कन्या का जन्म हो तो नाड़ी दोष नही रहता है ।
ग) उत्तराभाद्रपद, रेवती, रोहिणी, विषाख, आद्र्रा, श्रवण, पुष्य, मघा, इन नक्षत्र मे भी वर कन्या का जन्म नक्षत्र पडे तो नाड़ी दोष नही रहता है । उपरोक्त मत कालिदास का है ।
घ) वर एवं कन्या के राषिपति यदि बुध, गुरू, एवं शुक्र मे से कोई एक अथवा दोनो के राशिपति एक ही हो तो नाड़ी दोष नही रहता है ।
ङ) आचार्य सीताराम झा के अनुसार-नाड़ी दोष विप्र वर्ण पर प्रभावी माना जाता है । यदि वर एवं कन्या दोनो जन्म से विप्र हो तो उनमे नाड़ी दोष प्रबल माना जाता है । अन्य वर्णो पर नाड़ी पूर्ण प्रभावी नही रहता । यदि विप्र वर्ण पर नाड़ी दोष प्रभावी माने तो नियम नं घ का हनन होता हैं । क्योंकि बृहस्पती एवं शुक्र को विप्र वर्ण का माना गया हैं । यदि वर कन्या के राशिपति विप्र वर्ण ग्रह हों तो इसके अनुसार नाडी दोष नही रहता । विप्र वर्ण की राशियों में भी बुध व षुक्र राशिपति बनते हैं ।
च) सप्तमेश स्वगृही होकर शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो एवं वर कन्या के जन्म नक्षत्र चरण में भिन्नता हो तो नाडी दोष नही रहता हैं । इन परिहार वचनों के अलावा कुछ प्रबल नाडी दोष के योग भी बनते हैं जिनके होने पर विवाह न करना ही उचित हैं । यदि वर एवं कन्या की नाडी एक हो एवं निम्न में से कोई युग्म वर कन्या का जन्म नक्षत्र हो तो विवाह न करें ।
अ) आदि नाडी - अश्विनी-ज्येष्ठा, हस्त-शतभिषा, उ.फा.-पू.भा. अर्थात यदि वर का नक्षत्र अश्विनी हो तो कन्या नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर प्रबल नाडी दोष होगा । इसी प्रकार कन्या नक्षत्र अश्विनी हो तो वर का नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर भी प्रबल नाडी दोष होगा । इसी प्रकार आगे के युग्मों से भी अभिप्राय समझें ।
आ) मध्य नाडी- भरणी-अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी-उतराफाल्गुनी, पुष्य-पूर्वाषाढा, मृगशिरा-चित्रा, चित्रा-धनिष्ठा, मृगशिरा-धनिष्ठा ।
इ) अन्त्य नाडी- कृतिका-विशाखा, रोहिणी-स्वाति, मघा-रेवती; इस प्रकार की स्थिति में प्रबल नाडी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें । सामान्य नाडी दोष होने पर किस प्रकार के उपाय दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने का प्रयास कर सकते हैं, आइए जाने-
नाड़ी दोष उपाय-
१- वर एवं कन्या दोनो मध्य नाड़ी मे उत्पन्न हो तो पुरुष को प्राण भय रहता है । इसी स्थिति मे पुरुष को महामृत्यंजय जाप करना यदि अतिआवश्यक है । यदि वर एवं कन्या दोनो की नाड़ी आदि या अन्त्य हो तो स्त्री को प्राणभय की सम्भावना रहती है । इसलिए इस स्थिति मे कन्या महामृत्युजय अवश्य करे ।
२- नाड़ी दोष होने संकल्प लेकर किसी ब्राह्यण को गोदान या स्वर्णदान करना चाहिए ।
३- अपनी सालगिराह पर अपने वजन के बराबर अन्न दान करे एवं साथ मे ब्राह्यण भोजन कराकर वस्त्र दान करे ।
४- नाड़ी दोष के प्रभाव को दुर करने हेतु अनुकूल आहार दान करे । अर्थातृ आयुर्वेद के मतानुसार जिस दोष की अधिकतम बने उस दोष को दुर करने वाले आंहार का सेवन करे ।
५- वर एवं कन्या मे से जिसे मारकेश की दशा चल रही हो उसको दशानाथ का उपाय दशाकाल तक अवश्य करना चाहिए ।


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