लोक विख्यात मुहूर्त
मुहूर्त
का अर्थ, महत्वादि : फलित ज्योतिष के अनुसार जब किसी विशिष्ट निर्दिष्ट समय में कोई
शुभ कार्य करना उचित हो ऐसे बहुउपयोगी लोकप्रिय क्षणों को मुहूर्त कहते हैं। दूसरे
अर्थों में दिन-रात का तीसवां भाग मुहूर्त कहलाता है। इस प्रकार 2 घटी या 48 मिनट का कालखंड = एक मुहूर्त (समय) हुआ। कार्य की सफलता के दृष्टिकोण से देखा जाय तो मुहूर्त के 2
भेद हो जाते हैं- शुभ मुहूर्त (ग्राह्य समय)। अशुभ मुहूर्त
(अग्राह्य समय या त्याज्य समय)। जनमानस में या लोक व्यवहार की शैली में शुभ
मुहूर्त के लिए ही मुहूर्त शब्द का प्रयोग सदा से होता चला आ रहा है जैसे गणेशादि
देवताओं की प्रतिष्ठा के शुभ मुहूर्तों को ''देव प्रतिष्ठा
मुहूर्त'' के नाम से जाना जाता है इसी प्रकार विवाह-मुहूर्त,
गृहारंभ, गृह प्रवेश मुहूर्त, यात्रा मुहूर्त इत्यादि। भारतीय ज्योतिष के मुहूर्त खंड में कार्यारंभ
करने में ग्रह, तिथि, वार आदि के
प्रमाण से शुभाशुभ फल का विचार करते हैं। किसी भी कार्य की सिद्धि हेतु
शास्त्रज्ञों ने शुभ बेला निर्धारित की हैं जो ग्रहों के आपसी मेल, नक्षत्रादि की अनुकूलता पर निर्भर होती हैं, इन्हें
ही मुहूर्त की संज्ञा प्राप्त है। मुहूर्त समय और परिस्थिति के आधार पर भी निर्धारित
होते हैं। व्यक्तियों को अपने द्वारा किये जाने वाले शुभ कार्यों की सफलता या
सिद्धि के लिए पूरे मनोयोग सहित ग्रह, नक्षत्र, तिथि, वार, योग करणादि की
अनुकूलता का लाभ पाने के लिए मुहूर्त का उपयोग करते रहना चाहिए। मुहूर्त शोधन का
कार्य बहुत अधिक कठिन तो नहीं है परंतु पेचीदा अवश्य है। पंचांग-कर्ता लोक-कल्याण
की भावना से द्रवित होकर बड़ी सावधानी के साथ परिश्रम कर मुहूर्त शोधन करके विभिन्न
उपयोगी मुहूर्तों की तालिका पंचांगों व कैलेंडरों में देते हैं जिनका क्षण मात्र
में अवलोकन करके लाभ उठाया जा सकता है। कुछेक कार्यों को अमृत सिद्धि योग, गुरु-पुष्य योग, सर्वार्थसिद्धि योग में कर लेना
उत्तम माना गया है। प्राचीन ग्रहांतो में मुहूर्तों की उद्भावना : प्राचीन समय से
ही मांगलिक कार्यों के सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए शुभ लग्न या घड़ी अर्थात्
मंगलमय बेला का विचार किया जाता रहा है अर्थात् मुहूर्तों का आश्रय लेना आवश्यक
समझा जाता रहा है। राम के राज्याभिषेक की तैयारी के समय, एक
दिन पूर्व अयोध्या वासी नर-नारी सब जगह यही विचार कर रहे होते हैं कि अगले दिन
(कल) वह शेुभ घड़ी कब आयेगी जब वे स्वर्ण सिंहासन पर सीता सहित बैठे हुए राम के
दर्शन राजा के रूप में करके कृतार्थ हो जायेंगे। रामायण आदि धर्मग्रंथों के
प्रसंग/ दृष्टांत या उदाहरण विषय वस्तु की प्रासंगिकता, आवश्यकता
एवं उपादेयता की पुष्टि करने वाले एवं विषय वस्तु की समसामयिकता, पुरातनता आदि को प्रकट करने वाले होते हैं। प्राचीन धर्मग्रंथों और उनमें
उद्धरित प्रसंग इसी बात को प्रकट करते हैं कि राम और कृष्ण के जमाने में भी
मुहूर्त की उद्भावना थी अर्थात् अस्तित्व में थे। लोकाभिराम भगवान रामचंद्र का
जन्म अभिजित मुहूर्त में होने से इस लोकप्रिय मुहूर्त का नाम लोगों की जिव्हा पर
सदा से रहता आया है। भगवान राम सूर्यवंशी थे। उनका जन्म सूर्य के विद्यमान रहने पर
दिन में पड़ने वाले अभिजित मुहूर्त में हुआ था। चन्द्रवंशी भगवान श्रीकृष्ण का जन्म
चंद्र की विद्यमानता में ''रात्रि मध्य'' में पड़ने वाले अभिजित मुहूर्त में हुआ था, इसलिए
श्रीराम और श्रीकृष्ण इन दो महान अवतारों के प्राकट्य काल वाले ''अभिजित् मुहूर्त'' की महत्ता सर्वोच्च शिखर पर रहने
वाली मानी गई है। दिन में दो-दो घटी वाले 15 मुहूर्त पड़ते
हैं और वैसे ही 15 मुहूर्त रात्रि में पड़ते हैं। ये चौघड़िये
की तरह दिन और रात्रि में एक समान होते हैं। पंद्रह मुहूर्तों में से आदि के सात
मुहूर्तों के बाद पड़ने वाला आठवां मुहूर्त ''अभिजित मुहूर्त''
कहलाता है। हर प्रकार से अभिजित् मुहूर्त मध्य-रात्रि में ही
निर्मित होता है। एक खासियत और इस मुहूर्त की यह है कि सप्ताह के सात दिनों में से
मध्य में पड़ने वाले दिन बुधवार को यह मुहूर्त वर्जित माना जाता है। आठवां मुहूर्त
अभिजित, जन्मकुंडली का अष्टम भाव काल या मृत्यु का होता है।
अभिजित मुहूर्त में जन्मे राम और श्याम, लोक कंटक बने
राक्षसराज रावण और कंस के भी काल बन गये और उनका वध करके विजयी हुए। इसलिए इसे विजय-मुहूर्त
भी कहते हैं। अभिजित मुहूर्त में अनेकानेक दोषों के निवारण की अद्भुत शक्ति होती
है। जब कोई शुभ लग्न या शुभ मुहूर्त न बनता हो तो सब प्रकार के शुभ कार्य इस
मुहूर्त में किये जा सकते हैं। सिर्फ बुधवार के दिन इसका निषेध रहता है। भगवान हरि
को अत्यंत प्रिय यही परम पावन, पवित्र काल सब लोगों को शांति
देने वाला रहता है। इसमें स्वयं काल भी कुछेक पलों के लिए लोकोपकारार्थ विश्राम
करता है, उसे भी चैन/शांति मिलती है। इस मुहूर्त में किये
गये समस्त कार्य सदैव सफल होते हैं, शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण हो
जाते हैं। चौघड़ियों, लग्नों इत्यादि के समस्त दोषों का नाश
कर शुभ फल प्रदान करने वाला यह मुहूर्त सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। मध्याह्न 11:45
बजे से लगभग 12:30 बजे तक यह मुहूर्त रहता है।
जब सूर्य ठीक शिर के ऊपर रहते हैं तब अभिजित् मुहूर्त की बेला होती है। मतांतर से 11:36
बजे से 12:24 बजे की अवधि को अभिजित काल कहते
हैं। यह अवधि सत्य के काफी समीप प्रतीत होती है क्योंकि मध्याह्न काल से 24
मिनट पूर्व से 24 मिनट बाद तक की 48 मिनट या 2 घटी की अवधि अभिजित मुहूर्तावधि मानी जाती
है। जब 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की
रात होगी तब अभिजित 11:36 से 12:24 तक
रहेगा। यह स्थूल मान हुआ। स्पष्ट मान ज्ञात करने के लिए अभीष्ट दिन के दिनमान को
पंद्रह से विभाजित करने पर एक मुहूर्त का मान घटी पल में निकल आता है जिसे ढाई से
भाग करने पर घंटा मिनट में एक मुहूर्त का मान निकल आता है। इस मान को स्थानीय
सूर्योदय में जोड़कर प्रत्येक मुहूर्त की अवधि ज्ञात की जा सकती है। अभिजित मुहूर्त
का समय जानने के लिए एक मुहूर्त के मान को सात गुना कर सूर्योदय में जोड़ने से
अभिजित मुहूर्त के आरंभ होने का समय ज्ञात हो जाएगा जो आठवें मुहूर्त के समापन अवसर
तक चलेगा। अभिजित सर्वकामाय सर्वकामार्थ साधनः। अर्थसंचयं मानानामध्वानं
गन्तुमिच्छताम्॥ सिद्धि, सर्व कार्य सर्वकामना पूर्ति,
धन संग्रहेच्छापूर्ति और किसी भी प्रयोजन से की जाने वाली यात्रा
में सफलता ये सब अभिजित मुहूर्त प्रदान करता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों की
हर प्रकार की कामनापूर्ति करने वाला मुहूर्त अभिजित ही है। चारों वर्णों अर्थात्
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि
वर्णों के लोगों के मेल मिलाप के लिए मध्याह्म में पड़ने वाला यह अभिजित नामक
मुहूर्त श्रेष्ठ होता है। ऐसा शास्त्रों का मत है। इस मुहूर्त को सदा अपनाते रहना
चाहिए। ब्रह्म क्षत्रिय वैश्यानां शूद्रानां नित्यशः। सर्वेषामेव वर्णानां योगो
मध्यं दिने अभिजित्॥ जिस प्रकार से दिन के मुहूर्तों की गणना करने के लिए अभीष्ट दिन
के दिनमान को आधार बनाया जाता है, उसी तरह से रात्रिकालिक
मुहूर्तों की गणना करने के लिए रात्रिमान के आधार पर प्रत्येक मुहूर्त का समय
ज्ञात किया जाता है। ब्रह्म लोक में सुखपूर्वक विराजमान श्री ब्रह्मा जी से एक बार
कश्यप ऋषि ने प्रश्न किया हे पितामह, एक अहोरात्र में
चंद्रादित्य से संबंधित मुहूर्त, कौन-कौन मुहूर्त होते हैं
उन्हें बतलाने की कृपा कीजिए? इस प्रकार महात्मा कश्पय के
अनुनय विनय के साथ प्रश्न करने पर सारे संसार के गुरु स्वयंभु ब्रह्मा जी ने
रात्रि और दिन के प्रमाण से चंद्र और सूर्य से संबंधित सभी प्रकार के उत्तम से भी
उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ मुहूर्तों का वर्णन किया। पंद्रह मुहूर्तों के नाम : रौद्र
श्वेत मैत्र सारभट सावित्र वैराज विश्वावसु अभिजित् रोहिण बल विजय र्नैत वारुण
सौम्य भग। दिन और रात्रि में पड़ने वाले 15-15 मुहूर्तों को
क्रम से इन्हीं नामों से पुकारा जाता है। परंतु इन मुहूर्तों के स्वामी दिन और
रात्रि में अलग-अलग होते हैं। रविवार के दिन 14वां, सोमवार के दिन 12वां, मंगलवार
के दिन 10वां, बुधवार के दिन 8वां, गुरु के दिन 6वां,
शुक्रवार के दिन 4था एवं शनिवार के दिन दूसरा
मुहूर्त कुलिक शुभ-कार्यों में वर्जित हैं। इन पंद्रह मुहूर्तों में से आज भी
सिर्फ अभिजित मुहूर्त का ही लोगों के लिए महत्व रह गया है। साढ़े तीन स्वयम् सिद्ध
मुहूर्त : वासन्ती नवरात्र का प्रथम दिन या नव संवत् आरंभ दिवस यानी चैत्र शुक्ल
प्रतिपदा बैशाख शुक्ल तृतीया यानी अक्षय तृतीया आश्विन शुक्ल दशमी यानी विजया दशमी
(दशहरा) और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, ये चार मुहूर्त स्वयम्
सिद्ध मुहूर्त माने जाते हैं। इनमें से प्रथम तीन मूहूर्त पूर्ण एवं चतुर्थ
अर्द्धबली होने से इन्हें साढ़े तीन मुहूर्त कहते हैं। इनमें लोगों को किसी कार्य
को करने के लिए पंचांग का विचार करने की यानी पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता
नहीं रहती है। चारों वर्णों के लोग तथा हमारे पूर्वज बड़ी ही श्रद्धा व उमंग के साथ
इन मुहूर्तों को सदा से अपनाते आये हैं और सफल होते देखे गये हैं। सर्वमान्य
लोकप्रिय मुहूर्त : आषाढ़ शुक्ल नवमी (भड्डली नवमी) कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवउठनी ग्यारस,
बड़ी ग्यारस, गन्ना ग्यारस या प्रबोधिनी
ग्यारस) माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) एवं फाल्गुन शुक्ल
द्वितीया (फलेरा दोज) ये भी स्वयं सिद्ध मुहूर्त हैं। इनमें कोई भी शुभ तथा
मांगलिक कार्य आदि लोग पंचांग एवं ज्योतिषीय परामर्श के बिना ही कर लेते हैं बिना
किसी हिचक के। बिना अशुभ का चिंतन किये अनुभव से भी इन मुहूर्तों का फल सदा से शुभ
होता आया है। ये मुहूर्त हार्दिक प्रसन्नता के हेतु भी बन चुके हैं।
वधू
प्रवेश मुहूर्त
तीनों उत्तरा रोहिणी
हस्त अशिवनी पुष्य अभिजित मृगसिरा रेवती चित्रा अनुराधा श्रवण धनिष्ठा मूल मघा और
स्वाति ये सभी नक्षत्र चतुर्थी नवमी और चतुर्दशी ये सभी तिथियां तथा मंगलवार
रविवार और बुधवार इन वारों को छोड कर अन्य सभी नक्षत्र तिथि तथा वार में
नववधू का घर मे प्रवेश शुभ होता है।
रजस्वला
स्नान मुहुर्त
ज्येष्ठा अनुराधा
हस्त रोहिणी स्वाति धनिष्ठा मृगसिरा और उत्तरा इन नक्षत्रों मे शुभ वार एवं शुभ तिथियों
में रजस्वला स्त्री को स्नान करना शुभ है। वैसे तो यह नियम प्रतिमास के
लिये शुभ तथापि प्रत्येक मास रजस्वला होने वाली स्त्री जातकों को प्रतिपालन
संभव नही हो सकता है,
अत:
प्रथम बार रजस्वला
होने वाली स्त्री को के लिये ही इस नियम का पालन करना उचित समझना चाहिये।
नवांगना
भोग मुहूर्त
नव वधू के साथ प्रथम
सहसवास गर्भाधान के नक्षत्रों ( मृगशिरा अनुराधा श्रवण रोहिणी हस्त तीनों उत्तरा स्वाति
धनिष्ठा और शतभिषा) में चन्द्र शुद्धि एवं रात्रि के समय करना चाहिये।
गर्भाधान
मुहूर्त
जिस स्त्री को जिस
दिन मासिक धर्म हो,
उससे
चार रात्रि पश्चात सम रात्रि में जबकि शुभ ग्रह केन्द्र (१,
४,
७,
१०) तथा त्रिकोण (१,
५,
९) में हों,
तथा पाप ग्रह (३,
६,
११) में हों ऐसी लग्न में पुरुष को
पुत्र प्राप्ति के लिये अपनी स्त्री के साथ संगम करना चाहिये।
मृगशिरा अनुराधा श्रवण रोहिणी हस्त तीनों उत्तरा स्वाति धनिष्ठा और शतभिषा इन
नक्षत्रों में षष्ठी को छोड कर अन्य तिथियों में तथा दिनों में गर्भाधान
करना चाहिये,
भूल
कर भी शनिवार मंगलवार गुरुवार को पुत्र प्राप्ति के लिये संगम
नही करना चाहिये।
पुंसवन
तथा सीमांत मुहूर्त
आर्द्रा पुनर्वसु
पुष्य पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा हस्त मृगशिरा श्रवण रेवती और मूल इन नक्षत्रों में
रवि मंगल तथा गुरु इन वारों में रिक्त तिथि के अतिरिक्त अन्य तिथियों में
कन्या मीन धनु तथा स्थिर लगनों में (
२,
५,
८,
११) एवं गर्भाधान से पहले दूसरे अथवा
तीसरे मास में पुंसवन कर्म तथा आठवें मास में सीमान्त कर्म शुभ होता
है। रवि गुरु तथा मंगलवार तथा हस्त मूल पुष्य श्रवण पुनर्वसु और मृगशिरा इन
नक्षत्रों मेम पुंसवन संस्कार शुभ भी माना जाता है,
षष्ठी द्वादसी अष्टमी तिथियां त्याज्य
हैं। सीमान्त कर्म देश काल और परिस्थिति के अनुसार छठे अथवा आठवें महिने में करना
भी शुभ रहता है।
पुंसवन के लिये लिखे गये शुभ नक्षत्र ही सीमान्त के लिये शुभ माने जाते है।
प्रसूता
स्नान मुहूर्त
हस्त अश्विनी तीनों
उत्तरा रोहिणी मृगशिरा अनुराधा स्वाति और रेवती ये सभी नक्षत्र तथा गुरु रवि और मंगल ये
दिन प्रसूता स्नान के लिये शुभ माने जाते हैं। द्वादसी छठ और अष्टमी तिथियां
त्याज्य हैं।
जातकर्म
मुहूर्त
बालक का जात कर्म
पूर्वोक्त पुंसवन के लिये वर्णित नक्षत्र और तिथियों के अनुसार ही माना जाता है। शुभ दिन
जन्म से ग्यारहवां बारहवां ,
मृदु संज्ञक नक्षत्र
मृगशिरा रेवती चित्रा अनुराधा तथा ध्रुव संज्ञक नक्षत्र तीनो उत्तरा और रोहिणी क्षिप्र संज्ञक
नक्षत्र हस्त अश्विनी पुष्य और अभिजित तथा चर संज्ञक नक्षत्र स्वाति
पुनर्वसु श्रवण धनिष्ठा और शतभिषा शुभ होते हैं।
नामकरण
मुहूर्त
पुनर्वसु पुष्य हस्त
चित्रा स्वाति अनुराधा ज्येष्ठा मृगशिरा मूल तीनो उत्तरा तथा धनिष्ठा इन नक्षत्रों में
जन्म से ग्यारहवें बारहवें दिन शुभ योग बुध सोम रवि तथा गुरु को इन दिनों
स्थिर लग्नों में बालक का नामकरण शुभ होता है।
कूप
और जल पूजन मुहूर्त
मूल पुनर्वसु पुष्य
श्रवण मृगशिरा और हस्त इन नक्षत्रों में तथा शुक्र शनि और मंगलवार इन दिनों के अतिरिक्त
अन्य वारों में प्रसूता को कूप और जल पूजन करना चाहिये।
अन्न
प्राशन मुहूर्त
तीनो पूर्वा आश्लेषा
आर्द्रा शभिषा तथा भरणी इन नक्षत्रों को छोड कर अन्य नक्षत्र शनि तथा मंगल को छोडकर
अन्य वार द्वादसी सप्तमी रिक्ता पर्व तथा नन्दा संज्ञक तिथियों को छोडकर अन्य
तिथियां मीन वृष कन्या तथा मिथुन लग्न शुक्ल पक्ष शुभ योग तथा शुभ
चन्द्रमा में जन्म मास से सम मास छठे अथवा आठवें महिने में बालक का तथा विषम मास
में बालिका का प्रथम वार अन्न प्रासन (अन्न खिलाना) शुभ माना जाता है।
चूडाकर्म
मुहूर्त
पुनर्वसु पुष्य
ज्येष्ठा मृगशिरा श्रवण धनिष्ठा हस्त चित्रा स्वाति और रेवती इन नक्षत्रों में शुक्ल पक्ष
उत्तरायण में सूर्य,
वृष
कन्या धनु कुम्भ मकर तथा मिथुन लगनों में शुभ ग्रह के दिन तथा शुभ योग में
चूडाकर्म प्रशस्त
माना गया है।
शिशु
निष्क्रमण मुहूर्त
अनुराधा ज्येष्ठा
श्रवण धनिष्ठा रोहिणी मृगशिरा पुनर्वसु पुष्य हस्त उत्तराषाढा रेवती उत्तराफ़ाल्गुनी तथा
अश्विनी ये नक्षत्र सिंह कन्या तुला तथा कुम्भ यह लगन जन्म से तीसरा या चौथा
महिना यात्रा के लिये शुभ तिथियां तथा शनि और मंगल को छोडकर अन्य सभी दिन,
यह सब शिशु को पहली बार घर से बाहर निकलने के लिये शुभ
माने गये हैं।
मुण्डन
मुहूर्त
हस्त चित्रा स्वाति
श्रवण धनिष्ठा तीनों पूर्वा म्रुगशिरा अश्विनी पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा मूल तथा रेवती
ये सभी नक्षत्र तथा रविवार बुधवार और गुरुवार ये वार प्रथम वार मुण्डन के
लिये शुभ माने गये हैं।
कर्णवेध
मुहूर्त
श्रवण धनिष्ठा शतभिषा
पुनर्वसु पुष्य अनुराधा हस्त चित्रा स्वाति तीनों उत्तरा पूर्वाफ़ाल्गुनी रोहिणी मृगशिरा
मूल रेवती और अश्विनी यह सभी नक्षत्र शुभ ग्रहों के दिन एवं मिथुन कन्या धनु
मीन और कुम्भ यह लगन कर्णवेध के लिये उत्तम हैं,
चैत्र तथा पौष के महिने एवं देव-शयन का
समय त्याज्य है।
उपनयन
मुहूर्त
पूर्वाषाढ अश्विनी
हस्त चित्रा स्वाति श्रवण धनिष्ठा शतभिषा ज्येष्ठा पूर्वाफ़ाल्गुनी मृगशिरा पुष्य रेवती और
तीनो उत्तरा नक्षत्र द्वितीया तृतीया पंचमी दसमी एकादसी तथा द्वादसी
तिथियां,
रवि शुक्र गुरु और सोमवार दिन शुक्ल पक्ष सिंह
धनु वृष कन्या और मिथुन राशियां उत्तरायण में सूर्य के समय में उपनयन यानी यज्ञोपवीत यानी जनेऊ
संस्कार शुभ होता है। ब्राह्मण को गर्भ के पांचवें अथवा आठवें वर्ष में
क्षत्रिय को छठे अथवा ग्यारहवें वर्ष में वैश्य को आठवें अथवा बारहवें वर्ष
में यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये। किसी कारण से अगर समय चूक जाये तो
ब्राह्मण को सोलहवें वर्ष में क्षत्रिय को बाइसवें वर्ष में वैश्य को चौबीसवें
वर्ष में यज्ञोपवीत धारण कर लेना चाहिये। इन वर्षों के बीत जाने से
गायत्री मंत्र को लेने के अधिकार समाप्त हो जाते हैं। बिना यज्ञोपवीत धारण किये
गायत्री उल्टा प्रभाव देने लगता है।
इन मुहूर्तों के
अलावा विद्यारम्भ मुहूर्त,
नया
वस्त्र धारण करने का मुहूर्त नया अन्न ग्रहण करने का मुहूर्त मकान या व्यापार स्थान
की नीवं रखने
का मुहूर्त गृह प्रवेश का मुहूर्त देवप्रतिष्ठा का मुहूर्त क्रय विक्रय का मुहूर्त ऋण
लेने और देने का मुहूर्त गोद लेने का मुहूर्त आदि के बारे में भी जानकारी की जा सकती है।
यात्रा
मुहूर्त तथा शुभाशुभ शकुन विचार
अनुराधा ज्येष्ठा मूल
हस्त मृगसिरा अश्विनी पुनर्वसु पुष्य और रेवती ये नक्षत्र यात्रा के लिये शुभ है,
आर्द्रा भरणी कृतिका मघा उत्तरा विशाखा
और आशलेषा
ये नक्षत्र त्याज्य है,
अलावा
नक्षत्र मध्यम माने गये है,
षष्ठी द्वादसी रिक्ता तथा
पर्व तिथियां भी त्याज्य है,
मिथुन
कन्या मकर तुला ये लगन शुभ है,
यात्रा
में चन्द्रबल तथा शुभ शकुनो का भी विचार करना चाहिये.
दिकशूल
शनिवार और सोमवार को
पूर्व दिशा में यात्रा नही करनी चाहिये,
गुरुवार को दक्षिण दिशा की यात्रा त्याज्य करनी
चाहिये,
रविवार और शुक्रवार
को पश्चिम की
यात्रा नही करनी चाहिये,
बुधवार
और मंगलवार को उत्तर की यात्रा नही करनी चाहिये,
इन दिनो में और उपरोक्त दिशाओं में यात्रा
करने से दिकशूल माना जाता है.
सर्वदिशागमनार्थ
शुभ नक्षत्र
हस्त रेवती अश्वनी
श्रवण और मृगसिरा ये नक्षत्र सभी दिशाओं की यात्रा के लिये शुभ बताये गये है,
जिस प्रकार से विद्यारम्भ के लिये
गुरुवार श्रेष्ठ रहता है,
उसी
प्रकार पुष्य नक्षत्र को सभी कार्यों के लिये श्रेष्ठ माना जाता है.
योगिनी
विचार
प्रतिपदा और नवमी
तिथि को योगिनी पूर्व दिशा में रहती है,
तृतीया और एकादशी को अग्नि कोण में त्रयोदशी को और
पंचमी को दक्षिण दिशा में चतुर्दशी और षष्ठी को पश्चिम दिशा में पूर्णिमा
और सप्तमी को वायु कोण में द्वादसी और चतुर्थी को नैऋत्य कोण में,
दसमी और द्वितीया को उत्तर दिशा में
अष्टमी और
अमावस्या को ईशानकोण में योगिनी का वास रहता है,
वाम भाग में योगिनी सुखदायक,
पीठ पीछे वांछित सिद्धि दायक,
दाहिनी ओर धन नाशक और सम्मुख मौत देने वाली होती है.
पंथा
राहु विचार
दिन और रात को बराबर
आठ भागों में बांटने के बाद आधा आधा प्रहर के अनुपात से विलोम क्रमानुसार राहु पूर्व
से आरम्भ कर चारों दिशाओं में भ्रमण करता है,
अर्थात पहले आधे प्रहर पूर्व में दूसरे
में वाव्य कोण में तीसरे में दक्षिण में चौथे में ईशान कोण में
पांचवें में पश्चिम में छठे में अग्निकोण में सातवें में उत्तर में तथा
आठवें में अर्ध प्रहर में नैऋत्य कोण में रहता है.
राहु
आदि का फ़ल
राहु दाहिनी दिशा में
होता है तो विजय मिलती है,
योगिनी
बायीं तरह सिद्धि दायक होती है,
राहु
और योगिनी दोनो पीछे रहने पर शुभ माने गये है,
चन्द्रमा सामने शुभ माना गया है.
यात्रा
या वार परिहार
रविवार को पान,
सोमवार को भात (चावल),
मंगलवार को आंवला,
बुधवार को मिष्ठान,
गुरुवार को दही,
शुक्रवार को चटपटी वस्तु और शनिवार को
माह यानी उडद खाकर
यात्रा पर जाने से दिशा शूल या काम नही बिगडता है.
दिशाशूल
परिहार
रविवार को घी पीकर,
सोमवार को दूध पीकर,
मंगलवार को गुड खाकर,
बुधवार को तिल खाकर,
गुरुवार को दही खा कर शुक्रवार को जौ
खाकर और शनिवार को उडद खाकर यात्रा करने से दिशाशूल का दोष शान्त
माना जाता है.
राहु
विचार
रविवार को नैऋत्य कोण
में सोमवार को उत्तर दिशा में,
मंगलवार
को आग्नेय कोण
में,
बुधवार को पश्चिम
दिशा में,
गुरुवार को ईशान कोण
में,
शुक्रवार को दक्षिण दिशा में,
शनिवार को वायव्य कोण में राहु का निवास
माना जाता है.
चन्द्रबल
विचार
पहला चन्द्रमा कल्याण
कारक,
दूसरा चन्द्रमा मन
संतोष दायक,
तीसरा चन्द्रमा धन सम्पत्ति दायक,
चौथा चन्द्रमा कलह दायक,
पांचवां चन्द्रमा ज्ञान दायक,
छठा चन्द्रमा सम्पत्ति दायक,
सातवां चन्द्रमा राज्य सम्मान दायक,
आठवां चन्द्रमा मौत दायक,
नवां चन्द्रमा धर्म लाभ दायक,
दसवां चन्द्रमा मन इच्छित फ़ल प्रदायक,
ग्यारहवां चन्द्रमा सर्वलाभ प्रद,
बारहवां चन्द्रमा हानि प्रद होता है,
यात्रा विवाह आदि कार्यों को आरम्भ करते
समय चन्द्रबल का विचार करना चाहिये.
घात
चन्द्र विचार
मेष की पहली वृष की
पांचवी मिथुन की नौवीं कर्क की दूसरी सिंह की छठी कन्या की दसवीं तुला की तीसरी वृश्चिक
की सातवीं धनु की चौथी,
मकर
की आठवीं कुम्भ
की ग्यारहवीं मीन की बारहवीं घडी घात चन्द्र मानी गयी है,
यात्रा करने पर युद्ध में जाने पर कोर्ट कचहरी
में जाने पर खेती में कार्य आरम्भ करने पर व्यापार के शुरु करने पर घर की
नीव लगाने पर घात चन्द्र वर्जित मानी गयी है,
घात चन्द्र में रोग होने पर मौत,
कोर्ट में केस दायर करने पर हार,
और यात्रा करने पर सजा या झूठा आरोप,
विवाह करने पर वैधव्य होना निश्चित है.
यात्रा
में सूर्य विचार
गत रात्रि के अन्तिम
प्रहर से आरम्भ करके दो दो प्रहर तक सूर्य पूर्वादि दिशाओं में भ्रमण करता है,
यात्रा के समय सूर्य को दाहिने और बायें
तथा प्रवेश
के समय पीछे शुभ माना गया है.
कुलिक
विचार
रविवार को चौदहवां
सोमवार को बारहवां,
मंगलवार
को दसवां बुधवार को आठवां,
बृहस्पतिवार
को छठा और शुक्र वार को चौथा शनिवार को दूसरा मुहूर्त कुलिक संज्ञक होता है,
यह मुहूर्त अशुभ माना जाता है.
कालहोरा
ज्ञान
सोमवार को इष्टघटी
ग्यारह हो तो इसको दो से गुणा करने पर बाइस होते है,
इसमें पांच का भाग देने पर शेष दो बचते
है,
इस शेष दो को बाइस
में से घटाने
पर बीस शेष बचते है,
इसमे
एक जोडने पर इक्कीस होते है,
दहाई
और इकाई को जोडने
पर तीन का लाभ मिलता है,
तीन
का इक्कीस में भाग देने पर लभति सात आती है,
सोमवार से सातवीं कालहोरा रविवार की
होती है.
कालहोरा
ज्ञात करने की दूसरी विधि
कालहोरा ज्ञान की
दूसरी विधि है कि जिस दिन कालहोरा का ज्ञान करना हो,
उस दिन के क्रम से इक्कीस इक्कीस घडी का
प्रमाण कालहोरा सूर्य,
शुक्र,
बुध,
चन्द्र,
शनि,
गुरु और मंगल इस क्रम से गिनकर समझ लें,
शुभ ग्रह की होरा को शुभ तथा पाप ग्रह की
होरा को अशुभ समझना चाहिये,
जैसे सोमवार की इष्टघडी
इक्कीस में किसकी काल होरा होगी?
यह
जानने के लिये दो सौ ग्यारह घडी के प्रमाण से ग्यारह घडी इष्टघडी में पांच वीं होरा
हुयी,
वह सोमवार से चन्द्र एक
शनि दो गुरु तीन मंगल चार और सूर्य पांच वीं होरा हुयी,
उस समय में सूर्यवार का कर्तव्य मानना
चाहिये.
सर्वांक
ज्ञान
शुक्र पक्ष की
प्रतिपदा से तिथि संख्या रविवार से वार संख्या और अश्विनी नक्षत्र से नक्षत्र संख्या अपने अपने
अनुसार अलग अलग जगह पर लिखते है,
फ़िर २,
३,
४ से गुणा करने के बाद ३,
७,
८ से भाग देते है,
प्रथम स्थान पर शून्य शेष रहे तो हानि द्वितीय
स्थान में शून्य रहे तो शत्रु भय और तृतीय स्थान में शून्य रहे तो मरण होता है,
तीनो स्थान में शून्य हो तो विजय मिलती
है.
वत्स
दिशा विचार
भाद्रपद मास से
प्रारम्भ कर तीन तीन महीने तक वत्स पूर्व आदि दिशाओं मे रहता है,
अर्थात भाद्रपद,
अश्विन,
कार्तिक मास में पूर्व में अगहन,
पौष,
माघ में दक्षिण दिशा में,
फ़ाल्गुन,
चैत्र,
बैसाख मास में पश्चिम में,
और ज्येष्ट,
आषाड,
और श्रावण मास में उत्तर दिशा में निवास
करता है,
यात्रा,
विवाह,
गृहद्वार निर्माण बडे लोगों से भेंट और
कोर्ट केश आदि में सम्मुख वत्स विचार वर्जित माना जाता है.
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